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________________ प्रकृति व स्वभाव के साथ अठस्तक्षेप हैं-इसको पैदा किया, इसको बड़ा कर रहे हैं तो थोड़ा नहीं कहने का मजा...। मैं घरों में ठहरता हूं कभी-कभी, तो मैं सुनता हूं, हैरान होता हूं। अकारण 'नहीं' कहा जा रहा है। क्या रस होगा? क्या कारण होगा भीतर? हस्तक्षेप में एक मजा है। न कहने में इतना आनंद है किसी को, जिसका हिसाब नहीं। आप खड़े हैं खिड़की पर, क्लर्क से कह रहे हैं कि यह कर दीजिए। वह कहता है, आज नहीं हो सकता। खाली भी बैठा हो तो भी वह कहता है, आज नहीं हो सकता। क्योंकि नहीं कहने से ताकत पता चलती है, हां कहने से ताकत पता नहीं चलती। नहीं किसी से भी कह दो, उसका मतलब है कि तुम नीचे हो गए, हम बड़े हो गए। तो हस्तक्षेप अहंकार का लक्षण है। जितना नहीं कहने वाला आदमी होगा, समझना कि उतना अहंकारी है। विचारशील व्यक्ति पहले हर कोशिश करेगा हां कहने की, असंभव ही हो हां कहना, तो ही नहीं कहेगा। और तब भी नहीं को इस ढंग से कहेगा कि वह भीतर जाकर छुरी की तरह काटती न हो। उसका रूप हां का ही होगा। हमारे हां की भी जो शकल होती है, वह नहीं की होती है। और हम हां तभी कहते हैं, जब कोई और उपाय नहीं रह जाता। यह लड़का जो कह रहा है बाहर जाकर खेलूं, इसको भी थोड़ी देर में बाप हां कहेगा; लेकिन तब कहेगा जब कि हां का सारा मजा ही चला जाएगा। और हां विषाक्त हो जाएगा और नहीं के बराबर हो जाएगा। इसने नहीं कह दिया। लड़का भी जानता है; क्योंकि हस्तक्षेप कोई पसंद नहीं करता। बाहर नहीं जाने का बदला लेना शुरू करेगा कमरे के भीतर ही। शोर करेगा, चीजें पटकेगा, दौड़ेगा, भागेगा, जब तक यह हालत पैदा नहीं कर देगा कि बाप को कहना पड़े, बाहर चले जाओ! लेकिन तब बाहर चले जाओ हां जैसा लगता है, लेकिन उसका रूप तो न का हो गया। वह विषाक्त हो गया। और संबंध विकृत हो गए। और दोनों के अहंकार को अकारण बढ़ने का मौका मिला। अकारण बढ़ने का मौका मिला। क्योंकि जब भी मैं कहूं नहीं, तो मेरा अहंकार बोलता है। और जिससे भी मैं कहूंगा नहीं, उसका अहंकार संघर्ष करेगा। और जब तक वह मेरी नहीं को न तोड़ दे, तब तक संघर्ष करेगा। अगर बाप कह दे हां, तो खुद के भी अहंकार को मौका नहीं मिलता और बेटे के अहंकार को भी मौका नहीं मिलता कि वह हां कहलवाए। हमारी हस्तक्षेप की बड़ी सहज वृत्ति है। चारों तरफ हम हस्तक्षेप करते रहते हैं। जितने दूर तक हम रुकावटें डाल सकते हैं, उतने दूर तक लगता है हमारा साम्राज्य है। लेकिन यह जो रुकावट डालने वाला मन है, यह रुकावट डालने वाला मन जीवन को दुख और नरक में उतार देता है चाहे व्यक्तिगत रूप से, चाहे सामाजिक रूप से। नरक निर्मित करना हो तो नहीं को जीवन की दृष्टि बनाएं। स्वर्ग निर्मित करना हो तो हां की जीवन की दृष्टि बनाएं-स्वीकार की, तथाता की। निसर्ग को जहां तक बन सके मत छेड़ें। और बड़े आश्चर्य की बात है, अगर कोई व्यक्ति तैयार हो तो अनंत तक बन सकता है। मैं कहता हूं, जहां तक बन सके मत छेड़ें। और अगर आप तैयार हों तो अनंत तक बन सकता है। छेड़ने का कोई सवाल ही नहीं है। और जो व्यक्ति निसर्ग को नहीं छेड़ता, उसके भीतर उस घनीभूत शांति का जन्म होता है, उस अतुल शांति का जन्म होता है, जिसकी हमें कोई खबर भी नहीं। क्योंकि उसे अशांत ही नहीं किया जा सकता। जो आदमी हस्तक्षेप नहीं करता, उसे अशांत ही नहीं किया जा सकता। जो चीजों को स्वीकार कर लेता है, उसे अशांत ही नहीं किया जा सकता। सच यह है कि उसे किसी संघर्ष में घसीटा नहीं जा सकता, उसे किसी कलह में नहीं खींचा जा सकता। मनुष्य है क्या? एक छोटा जीवाणु। और जब वह विराट में हस्तक्षेप करता है, तो वह उस तिनके की भांति है जो नदी में बह रहा है और सोच रहा है कि नदी के विपरीत बहूं, उलटा बहूं, लडूं। बह नहीं पाएगा; लेकिन बहने की कोशिश में दुखी बहुत हो जाएगा, असफल बहुत हो जाएगा। लाओत्से कहता है, उस तिनके की भांति हो रहो जो नदी से कोई कलह ही नहीं करता, जो नदी के साथ बहता है। 321
SR No.002373
Book TitleTao Upnishad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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