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ताओ उपनिषद भाग ३
एक है-अंगर सफल होने की चेष्टा की और असफल हो गए तो! इसलिए बहाने खोज कर यहीं खड़े रहना उचित है, कि यह अपने से हो नहीं सकता।
एक सज्जन मेरे पास आए। वे कहते हैं कि मैं सब जानता हूं, सब समझता हूं। ठीक सुशिक्षित हैं, लेकिन वह इंटरव्यू देने कहीं किसी नौकरी में जाने में उनको बेचैनी मालूम पड़ती है। तो कोई नौकरी नहीं लगती है; क्योंकि बिना इंटरव्यू नौकरी कैसे लगे? और वे कहते हैं कि सब मुझे मालूम है, जो भी पूछा जाता है। कोई ऐसी बात नहीं है जो मुझे मालूम नहीं। छह साल से वे भटक रहे हैं, लेकिन इंटरव्यू...। तो मैंने उनको पूछा कि तुमने असफलता को जोर से पकड़ लिया है; अब तुम्हें डर है। इंटरव्यू का डर क्या है? नौकरी नहीं मिलेगी। छह साल से नौकरी है ही नहीं। और क्या इससे बुरा होने वाला है?
लेकिन एक लाभ है इसमें कि अभी तक वे किसी इंटरव्यू में असफल नहीं हुए। दिया ही नहीं, असफल होने का कोई कारण ही नहीं। तो अभी एक अकड़ है। अब वह अकड़ उनको दिक्कत दे रही है कि अब दें और कहीं असफल हो जाएं। अब ऐसे वे जिंदगी भर असफलता को पकड़े रहेंगे।
____ बहुत लोग हैं जो असफलता को पकड़ लेते हैं। बहुत लोग हैं जो सफलता को पकड़ लेते हैं। ये द्वंद्व हैं। कुछ लोग नाम को पकड़ लेते हैं। कुछ लोग बदनामी को पकड़ लेते हैं। क्योंकि बदनाम भी हुए तो क्या, कुछ नाम तो होगा ही। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर आप जेलखाने में जाएं और लोगों की बातें सुनें, तो वे एक-दूसरे को बताते हैं कि किसकी बदनामी ज्यादा है। तेरी क्या है? कुछ भी नहीं। वहां भी पुराने घाघ और नए घाघ और पुराने अपराधी और नए अपराधी। नए अपराधी की कोई इज्जत नहीं होती जेलखाने में। पहली दफे आए हो? कोई खास फिर पूछता नहीं। कितनी बार आ चुके हो?
आदमी द्वंद्व में से कुछ भी पकड़ लेता है। लेकिन बिना पकड़े कोई उपाय नहीं; नहीं तो नीचे डूब जाएगा।
लाओत्से कहता है, द्वंद्व में कुछ भी मत पकड़ना। द्वंद्व को ही मत पकड़ना; न नाम को पकड़ना, न अनाम को पकड़ना; न संसार को पकड़ना, न संन्यास को पकड़ना। पकड़ना मत; इसी का नाम संन्यास है। पकड़ना ही मत।
और धीरे-धीरे द्वंद्व के बीच चुनाव छोड़ देना, च्वायसलेस हो जाना। विकल्प मत बनाना। यह मत कहना कि मैं बुरे को पकडूंगा कि भले को पकडूंगा, कि पुण्य पकडूंगा कि पाप पकडूंगा, कि भोग पकडूंगा कि त्याग पकडूंगा। सब द्वंद्व को समझ लेना, पकड़ना मत। तो तत्क्षण व्यक्ति स्वयं में गिर जाता है। और वह जो स्वयं में गिर जाना है, वही परम अनुभव है।
'अनगढ़ लकड़ी को खंडित करें या तराशें, तो वही पात्र बन जाती है।'
यह बड़े मजे की बात है। लाओत्से कहता है, जो परम अध्यात्म में प्रवेश करता है, वह बिलकुल अपात्र हो जाता है संसार के लिए। अपात्र! शब्द जरा अच्छा नहीं है। अपात्र सुन कर ही भीतर मन में भय लगता है कि अपात्र! कुछ न कुछ तो पात्रता कहीं न कहीं होनी चाहिए। लाओत्से कहता है कि वह अनगढ़ लकड़ी की भांति अपात्र होता है-वह जो परम में विलीन होता है। उसका कोई भी तो उपयोग नहीं है।
__लाओत्से का क्या उपयोग करिएगा, बताइए? किसी काम के नहीं, कोई उपयोग नहीं। कोई उपयोग है? महावीर का कोई उपयोग है? क्या उपयोग करिएगा? किसी काम में न पड़ेंगे, बिलकुल बेकाम।
मगर यही उनका उपयोग है। क्योंकि यह जो बिलकुल ही उपयोग के बाहर खड़ा व्यक्ति है, यह परम शक्ति को उपलब्ध हो जाता है। यह फिर जाता नहीं आक्रमण करने उपयोग के लिए। इसके पास जो आ जाते हैं, इसके पास जो खिंच आते हैं चुंबक की भांति, उनको हजारों-हजारों उपयोग मिल जाते हैं। लेकिन यह अपनी तरफ से नहीं जाता। यह कुछ करता नहीं है। यह तो बिलकुल निष्क्रिय हो जाता है।
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