________________
संस्कृति से गुजर कर बिमर्ग में वापसी
आदमी बनाया हो, जिसने आत्मा बनाई हो। क्योंकि अगर आत्मा भी बनाई जाती है, तो चाहे कितने ही स्वर्गीय कारखाने में बनाई जाती हो, वह वस्तु हो गई, वह आत्मा नहीं रही। महावीर कहते हैं, जो बनाया ही नहीं जा सकता, अनबना है, और है, वही आत्मा है।
इसलिए लाओत्से भी ईश्वर की बात बिलकुल नहीं करता-स्रष्टा की तरह। . लेकिन महावीर कहते हैं, जिस दिन कोई इस अनबने को जान लेता है, वह भगवान हो जाता है। इसलिए महावीर के भगवान में और और लोगों के भगवान में बुनियादी अंतर है, बड़ा कीमती अंतर है। और लोगों का भगवान सिर्फ एक बड़ा संचालक है एक बड़े कारखाने का। और आप वस्तुओं की तरह बनाए और मिटाए जा रहे हैं। महावीर कहते हैं कि अगर कोई बनाने वाला भगवान है तो फिर जगत में धर्म का कोई उपाय ही न रहा। क्योंकि फिर आत्मा की कोई संभावना न रही। इसलिए महावीर की दृष्टि में स्रष्टा के रूप में भगवान का होना धर्म के लिए नष्ट कर देने का कारण है। फिर धर्म का कोई उपाय नहीं है। फिर सब व्यर्थ है। अगर मेरा कोई स्वभाव है-अनबना, बिना किसी का बनाया हुआ तो ही इस जगत में स्वतंत्रता, मुक्ति सार्थक शब्द हैं; अन्यथा व्यर्थ हैं।
लाओत्से भी ईश्वर की बिलकुल बात नहीं करता। हालांकि वह जो बात कर रहा है, उससे आप ईश्वर हो जाएंगे। इसलिए एक और मजे की बात ध्यान रख लें। इसीलिए महावीर कहते हैं, जितनी आत्माएं हैं, उतने भगवान हो सकते हैं। क्योंकि हर आत्मा जिस दिन अपने स्वभाव को जान ले, उस दिन भगवत्ता को उपलब्ध हो जाती है।
भगवान होना आपके भीतर स्वभाव के अनुभव का नाम है। अनगढ़ लकड़ी की भांति आप तत्काल नीचे सरक जाते हैं, अपने निसर्ग में। वह निसर्ग आपके भीतर है मौजूद, अभी, इसी वक्त भी। पर आप जोर से पकड़े हुए हैं अपने ढांचे को। जैसे कोई आदमी नदी में हो और किनारे से लटकती एक जड़ को वृक्ष की पकड़े हो जोर से, ऐसे आप अपने नाम को, रूप को, पद को, प्रतिष्ठा को, धर्म को, जाति को जोर से पकड़े हुए हैं। और वही पकड़ आपको स्वभाव में नहीं गिरने देती।
और आश्चर्य तो यह है कि साधारण आदमी पकड़े हो तो भी ठीक। जिनको आप महात्मा कहते हैं, वे भी हिंदू हैं, वे भी जैन हैं, वे भी मुसलमान हैं, वे भी ईसाई हैं। जिनको आप महात्मा कहते हैं, उनकी भी जाति है, उनका भी ढांचा है, उनका भी संस्कार है। वे भी अभी संस्कार को पकड़े हुए हैं। तब इसका अर्थ यह हुआ कि हम भूल ही गए हैं स्वभाव में गिरने की प्रक्रिया। क्या है स्वभाव में गिरने की प्रक्रिया?
लाओत्से कहता है, द्वंद्व के बीच कोई चुनाव नहीं, दोनों को साथ-साथ स्वीकार। सम्मान मिले, तो न तो उसे पकड़ने की आकांक्षा, न उसे छोड़ देने की आकांक्षा। सम्मान मिले, तो पकड़-छोड़, दोनों की आकांक्षा नहीं। सम्मान मिलता रहे और भीतर व्यक्ति अज्ञात में खड़ा रहे, जैसे है ही नहीं; तो लाओत्से कहता है, तत्क्षण निसर्ग में गिर जाएगा। क्यों? क्योंकि ढांचे को पकड़ने की व्यवस्था द्वंद्व की है।
हम एक आदमी को कहते हैं कि सफल होओ, असफल रहे तो जीवन बेकार है। तो वह सफलता को पकड़ता है। फिर वह असफलता को छोड़ता है, सफलता को पकड़ता है। फिर ऐसे लोग भी हैं जगत में, जो असफलता को पकड़ते हैं। उसका भी कारण है। क्योंकि सफलता से उन्हें भय लगता है। और सफलता में झंझट है, संघर्ष है, उपद्रव है। और भी एक मजा है कि सफलता की कोशिश करने में असफल होने का भी डर है। इसलिए वे असफलता को ही पकड़ लेते हैं। वे कहते हैं कि तबीयत ही ठीक नहीं रहती, सफल क्या हों? वे कहते हैं, घर में ऐसे जनमे जहां कौड़ी नहीं है, सफल कैसे हों? वे कहते हैं, शिक्षा ही नहीं मिली ठीक से, सफल कैसे हों? वे कोई बहाने खोज लेते हैं, असफलता को पकड़ लेते हैं। फिर उनको आप सफल करने की भी कोशिश करें तो वे टस से मस नहीं होंगे। वे हटेंगे नहीं; क्योंकि यह उनका प्राण है। और डर क्या है? वे बातें इतनी असफलता की कर रहे हैं, लेकिन डर केवल
303