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ताओ उपनिषद भाग ३
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बंधन है। धंधा, व्यवसाय, पद, उपाधि बंधन हैं। लेकिन वह सब जरूरी है। क्योंकि उसके बिना तो जीवन चल नहीं सकता। आवश्यक है। बुराई हो तो भी आवश्यक है। बच्चे को मां-बाप कुछ तो देंगे ही। अगर न देने की कोशिश करें तो उस कोशिश में भी कुछ देंगे। कोई उपाय नहीं है।
ऐसा हुआ, इजिप्त के एक सम्राट, एक फैरोह को खयाल आया कि जो भी हम बच्चों को भाषा सिखाते हैं, वह दी हुई है। तो उसने एक बच्चे को जन्म के बाद महल में रखवा दिया और उपाय किया कि उसको कोई भाषा सुनने का मौका न मिले, ताकि पता चल जाए कि मनुष्य की निसर्ग-भाषा क्या है।
वह बच्चा सिर्फ गूंगा साबित हुआ। वह बोला ही नहीं; क्योंकि कोई निसर्ग-भाषा नहीं है; सब भाषा संस्कार है । निसर्ग तो मौन है। ध्यान रहे, भाषा संस्कार है । उसको कोई भाषा ही नहीं दी गई तो वह गूंगा ही रह गया।
लेकिन ध्यान रहे, उसका गूंगापन महावीर का मौन नहीं है, क्योंकि उसने वाणी नहीं जानी। जिसने वाणी नहीं जानी, वह मौन से कैसे परिचित होगा? वह सिर्फ गूंगा है, सिर्फ गूंगा। गूंगा होना मौन नहीं है। वाणी जिसने जानी और वाणी को जान कर जिसने व्यर्थ पाया और चुप हो गया, तब मौन है। वह लड़का सिर्फ गूंगा रह गया। उसकी कोई भाषा नहीं थी। भाषा तो सिखानी पड़ेगी। हमें सभी कुछ सिखाना पड़ेगा।
लेकिन अगर साथ यह बात भी खयाल में बनी रहे कि जो भी सिखाया जा रहा है, वह बाहर से आ रहा है; जरूरी है, आत्यंतिक नहीं है। आवश्यक है, उपयोगी है; सत्य नहीं है। सत्य तो वह अनगढ़ स्वभाव है, अनछुआ, कुंआरा, अस्पर्शित – दूसरा जहां तक पहुंचा ही नहीं कभी - वही मेरी आत्मा है।
तो लाओत्से कहता है, ऐसा व्यक्ति जो द्वंद्व के बाहर हो गया, वह पुनः अनगढ़ लकड़ी की भांति नैसर्गिक समग्रता में वापस लौट जाता है।
वह फिर अनगढ़ लकड़ी हो जाता है। टेबल कुर्सी नहीं रह जाता, हिंदू-मुसलमान नहीं रह जाता। डूब जाता है उस तल पर, जहां कोई संस्कार नहीं है। वह पुनः असंस्कृत, नैसर्गिक, स्वाभाविक हो जाता है। उस स्वभाव का नाम ताओ है। उस स्वभाव का नाम ताओ है। उस स्वभाव को वेद ने ऋत कहा है। उस स्वभाव को महावीर आत्मा कहते हैं। बुद्ध उस स्वभाव को निर्वाण कहते हैं। यह शब्दों का फासला है। लेकिन यह बात ठीक से समझ लें कि एक आपका रूप है, नाम है, ढांचा है, जो दिया गया है। और एक आप हैं, जो किसी ने आपको दिया नहीं, आप हैं; जो अनदिया है आपके भीतर ।
इसीलिए महावीर और बुद्ध, जिन्होंने ज्ञान की परम स्थिति में प्रवेश किया, उन्होंने ईश्वर को इनकार कर दिया । और करने का कारण क्या था ? करने का कारण यह था कि अगर ईश्वर बनाने वाला है, तब तो हमारे भीतर स्वभाव बचा ही नहीं। क्योंकि उसका तो मतलब यह हुआ कि कुछ ईश्वर बनाता है, कुछ मां-बाप बनाते हैं, कुछ स्कूल का शिक्षक बनाता है, कुछ समाज बनाता है— सभी बना हुआ है - तो फिर भीतर स्वभाव कहां ? इसलिए महावीर ने कहा कि जगत का कोई स्रष्टा नहीं है।
यह बड़ी महत्व की बात है। यह साधारण नास्तिकता नहीं है, यह परम आस्तिकता है। क्योंकि महावीर की दृष्टि यह है कि अगर मेरा स्वभाव भी किसी ने बनाया तो वह भी मेरा स्वभाव नहीं रहा। इससे क्या फर्क पड़ता है कि बाप ने बनाया, कि बड़े बाप ने, जो आकाश में है, उसने बनाया। इससे क्या फर्क पड़ता है? किसी ने बनाया । तो फिर मैं हूं ही नहीं। झूठ ही झूठ है, फिर कोई सत्य नहीं है । फिर सभी बाहर से आया, तो भीतर क्या है? इसलिए महावीर ने कहा कि धर्म को स्रष्टा को अस्वीकार करना ही होगा। कोई स्रष्टा नहीं है।
लेकिन फिर भी, महावीर कहते हैं, व्यक्ति भगवान हो सकता है। और भगवान कोई नहीं है। तब बड़ी जटिलता हो जाती है। महावीर कहते हैं, भगवान कोई भी नहीं है स्रष्टा के अर्थ में, जिसने दुनिया बनाई हो, जिसने