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________________ संस्कृति से गुजर कर निसर्ग में वापसी 301 अगर यह किसी की अशांति पर निर्भर थी तो बुद्ध को लोगों को अशांत होने के लिए समझाना चाहिए, शांत होने के लिए नहीं। क्योंकि लोग अगर शांत हो जाएंगे तो बुद्ध का क्या होगा ? आत्महत्या में लगे हैं। लोगों को समझा रहे हैं, शांत हो जाओ ! बुद्ध की शांति आत्मनिर्भर है। यह किसी को अशांत करके शांत होने का उपाय नहीं है । यह स्वयं को ही शांत करके शांत होने का उपाय है। • बुद्ध का ज्ञान अज्ञानी पर निर्भर है ? इसे कसौटी समझ लें। अगर आपका ज्ञान अज्ञानी पर निर्भर हो, तो वह जानकारी है, ज्ञान नहीं है। अगर आपका ज्ञान आप पर ही निर्भर हो, और दुनिया में एक भी अज्ञानी न रहे तो भी आपके ज्ञान में कोई फर्क न पड़े, तो ही समझना कि वह अनुभव है। अनुभव सदा ही स्वयं में पर्याप्त है। बुद्ध ने जो जाना है, उसका आपके न जानने से कोई संबंध नहीं है। कोई भी न हो इस पृथ्वी पर, तो भी वह जानना ऐसे ही घटित हो जाएगा। लेकिन एक फिल्म अभिनेत्री है, वह सुंदर है। और कोई भी न हो इस पृथ्वी पर, वह सुंदर नहीं रह जाएगी। उसका सुंदर होना दूसरों की आंखों पर निर्भर था। एक राजनेता है। इस पृथ्वी पर कोई न हो, वह राजनेता नहीं रह जाएगा। उसका नेता होना अनुयायियों पर निर्भर था। एक बुद्ध बुद्ध ही होंगे। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि पृथ्वी बचती है कि खो जाती है। यह सारा संसार खो जाए, यह कुछ भी न हो, तो भी रत्ती भर फर्क नहीं पड़ेगा। वही स्थिति जो दूसरे पर निर्भर नहीं है, आत्म-स्थिति है। जो स्थिति दूसरे पर निर्भर है, वह पर स्थिति है। वह आत्म-स्थिति नहीं है। ध्यान रखना, अपने भीतर खोज करते रहना कि आपके पास ऐसा भी कुछ है जो किसी पर निर्भर नहीं है ? अगर है, तो समझना कि आपके पास आत्मा है। और अगर नहीं है, तो समझना कि आत्मा का आपको अभी कोई भी पता नहीं है। आत्मा का अर्थ ही यह है कि जो स्वयं में पर्याप्त हो । यह सूत्र कीमती है। लाओत्से कहता है, 'उस व्यक्ति को वह सनातन शक्ति प्राप्त होती है, जो स्वयं में पर्याप्त है । और वह पुनः अनगढ़ लकड़ी की भांति नैसर्गिक समग्रता में वापस लौट जाता है।' 'अनगढ़ लकड़ी की भांति नैसर्गिक समग्रता में वापस लौट जाता है।' हम सब गढ़ी हुई लकड़ियां हैं – कल्टीवेटेड, सुसंस्कृत । ऐसा समझें, एक बच्चा पैदा हुआ आपके घर में । वह अनगढ़ लकड़ी है। अभी वह बच्चा हिंदू नहीं है, ईसाई नहीं है, जैन नहीं है, बौद्ध नहीं है। अभी अनगढ़ लकड़ी आप गढ़ना शुरू कर दिए। अगर आप जैन हैं, तो आपने उस लड़के को तराशना शुरू कर दिया, जैन बनाने की शुरू हो गई। बुला लाए किसी मुनि महाराज को आशीर्वाद दिलाने के लिए; कि ले गए चर्च में बपतिस्मा के लिए। आपने उस लड़के को काटना-छांटना शुरू कर दिया। यात्रा शुरू हो गई। लकड़ी अनगढ़ नहीं । अब फर्नीचर बनेगा। आप उसकी कुर्सी, टेबल, कुछ बनाएंगे। लकड़ी स्वीकृत नहीं है। अनगढ़, नैसर्गिक लकड़ी स्वीकृत नहीं है। आप कुछ बनाएंगे। तभी काम का; नहीं तो बेकाम का साबित हो जाएगा लड़का। आप काम का बना कर रहेंगे। फिर यह लड़का पचास साल का हो गया। अब यह सोचता है, मैं हिंदू हूं, ईसाई हूं, जैन हूं। यह झूठ है। यह थोपा हुआ आरोपण है। यह बनावट है। यह ऊपर से दिया गया खयाल है । यह संस्कार है। यह जानता है, मैं इंजीनियर हूं, डाक्टर हूं, दूकानदार हूं, कि क्लर्क हूं, कि मास्टर हूं। ये भी संस्कार हैं। यह जानता है कि मेरा नाम राम है, कृष्ण है, कि मोहम्मद है। यह भी संस्कार है। यह जानता है कि मैं सफल हूं, असफल हूं। यह भी संस्कार है। ये सब दूसरों ने दिए हैं। ध्यान रहे, संस्कार मिलते हैं दूसरों से, स्वभाव आता है स्वयं से । इसलिए संस्कार से मुक्त हो जाना ही मुक्ति है, स्वभाव में गिर जाना ही मुक्ति है। स्वभाव तो अनगढ़ है, अनबना है। संस्कार गढ़ा हुआ है। संस्कार ही बंधन है। हिंदू होना बंधन है; जैन होना बंधन है; मुसलमान होना बंधन है। राम होना, कृष्ण होना, बुद्ध होना बंधन है। नाम
SR No.002373
Book TitleTao Upnishad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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