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________________ ताओ उपनिषद भाग ३ बड़े से जब तक आप दुखी होते हैं, तब तक जानना कि नाम कुछ भी हो, अहंकार भीतर है। आप बहाने कुछ भी खोज रहे हों अहंकार को भरने के लिए, भोजन कुछ भी दे रहे हों, दूध पर ही रखा हो, शुद्ध दूध पर अहंकार को, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता। मांसाहार करवाया हो, कि दूध दिया हो, कि साग-सब्जी खिलाई हो, खिला अहंकार को ही रहे हैं। त्याग खिलाया हो, कि प्रतिष्ठा खिलाई हो, अहंकारी कि निरहंकारी कौन सी यात्रा करवाई हो; लेकिन अहंकार ही यात्रा कर रहा है। लाओत्से जीवन के प्रति बहुत सम्यक है। कहता है, अनुभव और अनुभव के साथ अज्ञात की तरह रहता है, वह संसार के लिए घाटी बन जाता है। और उस सनातन शक्ति को प्राप्त होता है, जो स्वयं में पर्याप्त है। इसे थोड़ा समझ लें। कौन सी शक्ति स्वयं में पर्याप्त होती है? ऐसा समझें कि अर्जुन बहुत बड़ा योद्धा है। लेकिन दुनिया में कोई भी न हो तो अर्जुन का सब योद्धापन खतम हो जाएगा। क्योंकि अर्जुन के योद्धा होने के लिए किसी का हारना जरूरी है, किसी का मरना जरूरी है, किसी की पराजय आवश्यक है। अर्जुन की विजय के लिए किसी की पराजय आवश्यक है। उसकी विजय भी किसी की पराजय पर निर्भर है। यह बहुत मजे की बात है कि आपकी विजय भी किसी की पराजय पर निर्भर है। उसके बिना आप जीत भी नहीं सकते। उसके बिना आप जीत भी नहीं सकते। क्या विजय हुई यह? जो दूसरे पर निर्भर है वह विजय हुई? • आपकी अमीरी गरीबी पर निर्भर है। अगर आस-पास गरीब न हों, अमीरी का मजा चला जाता है। आपको कोई सारी दुनिया का सम्राट बना दे, लेकिन दुनिया में कोई और न हो, आप अकेले ही हों। आप कहेंगे, भाड़ में जाए यह साम्राज्य, मजा ही चला गया। क्योंकि मजा दूसरे पर निर्भर था। आप कितने ही बड़े महल में रहें, जब तक पड़ोस में झोपड़ा न हो, तब तक महल का मजा नहीं आता। वह महल का मजा झोपड़े में निर्भर है। किसी पर है, उसका मजा इसी पर है कि किसी पर नहीं है। यह बड़ी उलटी बात है। आपका सारा सुख दूसरे पर निर्भर है। आपका सारा व्यक्तित्व दूसरे पर निर्भर है। आप बड़े पंडित हैं। कुछ मूढ़ आपको चाहिए, नहीं तो आप पंडित नहीं हैं। मतलब पांडित्य मूढ़ता पर निर्भर है। दुनिया में मूढ़ न हों, पंडित व्यर्थ हो गए। अज्ञानी न हों, ज्ञानी दो कौड़ी के हो गए। कुरूप लोग न हों, सुंदर लोगों की कोई पूछ न रही। तो जो सौंदर्य कुरूपता पर टिका हो, वह कितना सुंदर होगा? और जो धन निर्धन की छाती पर खड़ा हो, वह कितना धन होगा? और जो पुण्य पापों के बीच निर्मित होता हो, उसमें कितनी पुण्यवत्ता हो सकती है? इसका मतलब यह हुआ कि सुंदर जाने-अनजाने चाहता है कि दूसरे लोग कुरूप रहें। जाने या न जाने, दूसरी बात है। लेकिन जो चीज निर्भर दूसरों की कुरूपता पर है, वह चाहेगी ही कि दूसरे लोग कुरूप रहें। सौंदर्य अगर कुरूप को चाहता है, कितना सौंदर्य है उसमें? लाओत्से कहता है कि जो व्यक्ति द्वंद्वों के बीच समता को उपलब्ध हो जाता है, चुनाव नहीं करता, डोलता नहीं, द्वंद्वों को जोड़ कर काट देता है और दोनों के बाहर हो जाता है, वह उस शक्ति को उपलब्ध होता है जो स्वयं में पर्याप्त है। बुद्ध शांत हैं। उनकी शांति अशांत लोगों पर निर्भर नहीं। समझ लें। अगर दुनिया में एक भी आदमी अशांत न हो तो भी बुद्ध की शांति में कोई फर्क नहीं पड़ेगा। या पड़ेगा? बुद्ध अपने बोधिवृक्ष के नीचे शांत बैठे हैं। यह शांति अशांत लोगों की अशांति के कारण शांति है? अगर-बुद्ध तो आंख बंद किए बैठे हैं-यह सारी दुनिया विलीन हो जाए, बुद्ध आंख खोल कर देखें कि कोई अशांत यहां दिखाई नहीं पड़ रहा, तो उनको भीतर की शांति समाप्त हो जाएगी? नहीं, कोई कारण नहीं है। यह शांति किसी की अशांति पर निर्भर ही न थी। 300
SR No.002373
Book TitleTao Upnishad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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