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________________ संस्कृति से मुजन कर विमर्ग में वापसी हम उलटा कर रहे हैं। मैं एक घर में ठहरा हुआ था। जिनके घर ठहरा था उनका लड़का थोड़ा उदंड था, जैसे कि लड़के होते हैं। अविनयी था। तो बाप को अच्छा मौका मिला कि मेरे सामने वह उसको लताड़ें, सताएं। अक्सर बाप दूसरों के सामने लड़कों को सताने में रस लेते हैं। तो मेरे सामने उनके पुत्र को हाजिर किया गया। पिता बोले कि ये सुपुत्र हैं! मतलब था-कुपुत्र हैं, विनय बिलकुल नहीं। फिर उन्होंने उपदेश दिया पुत्र को कि विनयवान को ही सम्मान मिलता है। मैंने उनको पूछा, आप क्या कह रहे हैं? आप इस लड़के को पाखंडी बनाने की कोशिश कर रहे हैं। क्या कह रहे हैं? आप कह रहे हैं, विनयवान को सम्मान मिलता है। आप रस जगा रहे हैं सम्मान में और विनय को उपकरण बना रहे हैं सम्मान का। आप इसको हिपोक्रेट, पाखंडी बना रहे हैं। यह विनीत होगा और प्रतीक्षा करेगा सम्मान मिले। यह दिखाएगा कि मैं विनम्र हूं और आशा करेगा लोग मेरे पैर छुएं। यह कहेगा, नहीं-नहीं, मेरे पैर मत छुओ; और इसकी पूरी आत्मा से लार टपकेगी कि जल्दी छुओ। आप इसको क्या सिखा रहे हैं? उन्होंने कहा कि आप क्या कह रहे हैं इसके ही सामने? यह वैसे ही उदंड है! मैंने कहा, इसकी उइंडता फिर भी सीधी-साफ है। और आप जिस विनय की बात कर रहे हैं, वह ज्यादा चालाकी और कनिंगनेस की बात है। उदंड है तो उदंड रहने दें। उदंड का दुख मिलेगा। सहायता करें कि और उदंड हो जाए, ताकि अनुभव से गुजर जाए। और दुख उठाने दें उदंड का। क्योंकि दुनिया में कोई किसी को अनुभव नहीं दे सकता। शब्द दे सकता है, अनुभव नहीं दे सकता। इसको उदंड होने का दुख उठाने दें। यह सोचता है कि उदंड होने में सुख है। इसको सुख उठाने दें। और आप सोचते हैं कि उदंड होने में दुख पाएगा, दुख उठाने दें। इसके अनुभव से जिस दिन इसको दिखाई पड़ जाए कि उइंडता मूढ़ता है, उस दिन जो विनम्रता आएगी, वह आपकी विनम्रता नहीं होगी, कि सम्मान के लिए। और मैं समझता हूं कि आपने उदंड होने का दुख नहीं उठाया। इसलिए सम्मान की इच्छा पीछा कर रही है। और तब विनम्र होने में भी सम्मान की आकांक्षा है। और तब त्याग में भी सम्मान की आकांक्षा है। सम्मान की आकांक्षा भोग है तो त्याग में सम्मान की आकांक्षा क्या होगी? तब फिर निर्धन होने में भी धन ही कमाया जा रहा है। - आदमी ऐसा उपद्रव अपने साथ कर सकता है। उसी का नाम पाखंड है। और हमारे सारे जीवन पाखंड से भर गए हैं। भर गए हैं इसलिए कि लक्ष्य कुछ और, और साधन विपरीत। इच्छा यही है कि मेरा अहंकार भरे। और आवरण ऐसा है कि मैं तो निरहंकारी हूं। अगर कोई कह दे कि आपसे भी बड़ा निरहंकारी कोई है, तो दुख पहुंचता है। निरहंकारी को इस बात से कैसे दुख पहुंचेगा कि उससे बड़ा भी कोई निरहंकारी है? अहंकारी को पहुंचेगा। अगर मेरे पास कोई आए और मैं कहूं कि मैं बिलकुल निरहंकारी हूं और वह कहे कि आप क्या निरहंकारी हैं, हमारे पड़ोस में एक आदमी रहता है जो आपसे भी ज्यादा निरहंकारी है, तो मुझे चोट पहुंचेगी। क्यों? हां, मैं अगर अहंकारी हूं और मुझसे ज्यादा कोई अहंकारी है तो चोट पहुंचनी चाहिए। निरहंकारी को भी चोट पहुंचती है कि उससे बड़ा कोई निरहंकारी है। त्यागी से कहिए कि आपका त्याग क्या, आपसे बड़ा त्यागी है! देखिए, चेहरे पर कालिमा छा जाती है। त्यागी को भी इसमें दुख होता है? तो फिर कहीं धोखा हो रहा है। निरहंकारी तो आनंदित होगा कि बड़ी अच्छी बात है, मुझसे बड़ा कोई निरहंकारी है। यह तो बहुत ही आनंद की बात है। त्यागी को खुशी होगी कि मुझसे बड़ा कोई त्यागी है; तो बड़ी खुशी की बात है कि दुनिया में और बड़ा त्याग भी है। लेकिन त्यागी भी दुखी होगा। ज्ञानी भी दुखी होता है, उससे कहो कि आपसे बड़ा ज्ञानी कोई है। ज्ञानी भी दुखी होता है। अज्ञानी दुखी होता है, क्षम्य है। पर ज्ञानी दुखी होता है। तो फिर अज्ञानी और ज्ञानी में फर्क कहां है? 299
SR No.002373
Book TitleTao Upnishad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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