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ताओ उपनिषद भाग ३
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अब यह बड़े मजे की बात है कि त्याग का मतलब ही एक होता है कि प्रतिष्ठा छोड़ दी। लेकिन अगर त्याग की भी प्रतिष्ठा बनाई हो तो सब व्यर्थ हो गया। लेकिन हालत ऐसी है। मैं एक साधु के आश्रम में गया था। वे सब कुछ छोड़ कर चले गए हैं। सब कुछ का मतलब जो उनके पास था - बहुत ज्यादा नहीं था — मगर जो भी था, सब कुछ छोड़ कर चले गए हैं। उनके आश्रम में दीवारों पर मैंने जो वचन लिखे देखे, वे बड़े मजेदार थे। जिस कमरे में वे बैठे थे, उसकी दीवार पर लिखा हुआ था कि त्याग श्रेष्ठतम है, क्योंकि सम्राट भी त्यागी के चरणों में सिर झुकाता है। मैंने उनको पूछा कि इस सूत्र का क्या मतलब हुआ ? त्याग की श्रेष्ठता भी इसीलिए हुई कि सम्राट भी सिर झुकाता है ? इसका अर्थ हुआ कि त्याग करने योग्य है; क्योंकि सम्राट को भी जो प्रतिष्ठा नहीं मिलती, वह त्यागी को मिलती है।
अगर त्याग भी प्रतिष्ठा बन जाए तो त्याग नहीं रहा । त्याग का मतलब ही एक होता है कि प्रतिष्ठा का अब कोई अर्थ नहीं है। लेकिन आप त्यागी को देखें। वह प्रतिष्ठा में इतना रस लेता है जितना कि भोगी नहीं लेता । त्यागी का सारा काम चौबीस घंटे एक है कि प्रतिष्ठा । भोगी कभी-कभी प्रतिष्ठा में रस लेता है; और भी काम हैं उसे । त्यागी को दूसरा काम ही नहीं है। उसको सुबह से सांझ तक एक ही काम है— प्रतिष्ठा । और अगर वह त्याग भी करता है इस प्रतिष्ठा के लिए तो वह त्याग व्यर्थ हो गया।
असल बात यह है कि अगर सम्मान का अनुभव न हो तो सम्मान की पीड़ा का भी अनुभव नहीं होता । अगर सम्मान का अनुभव न हो तो सम्मान की व्यर्थता का भी अनुभव नहीं होता। अगर सम्मान का अनुभव न हो तो सम्मान की मूढ़ता का भी अनुभव नहीं होता। पूरे अनुभव के बाद जो व्यक्ति अज्ञात में डूब जाता है, वह फिर अज्ञात में डूबने को सम्मान का कारण नहीं बनाता। यह अज्ञात अब सम्मान से विपरीत आयाम हो जाता है।
हम अपने को धोखा दे सकते हैं। ऐसा समझें कि आपको धन का अनुभव न हो और आप त्यागी हो जाएं। तो छिपे अचेतन में धन की आकांक्षा काम करती रहेगी। बिलकुल काम करती रहेगी। उसमें कोई भेद नहीं पड़ेगा। और वह नए रास्ते निकालेगी और नए सिक्के गढ़ेगी। वे सिक्के बड़े धोखे के होंगे। संसार के सिक्के उतने धोखे के नहीं हैं, सीधे - साफ हैं । संसारी होना सीधा-साफ है। लेकिन संसार के बिना परिपक्व अनुभव के संन्यासी हो जाना बड़े उपद्रव की बात है। क्योंकि तब आदमी विकृत मार्गों से संसारी ही होता है। सिर्फ मार्ग बदल गए होते
ज्यादा धोखे
और ज्यादा चालाकी के हो गए होते हैं। लेकिन संसार से कोई छुटकारा नहीं होता।
अगर आपको धन का अनुभव नहीं है तो आप निर्धन होने का मजा नहीं ले सकते। सिर्फ दुख पा सकते हैं। निर्धन होने का । या निर्धन के नाम पर प्रतिष्ठा बना कर सुख पा सकते हैं। लेकिन तब आप निर्धनता का उपयोग धन की तरह कर रहे हैं। तो कुछ लोग धन का उपयोग कर रहे हैं प्रतिष्ठा के लिए, आप निर्धनता का उपयोग कर रहे हैं प्रतिष्ठा के लिए। आपके मार्ग अलग हो गए हों, लेकिन आपका लक्ष्य एक है।
धन के अनुभव के बाद जब कोई निर्धन होता है, तो इस निर्धनता का कोई भी उपयोग नहीं करता । यह निर्धनता सिर्फ उसका आंतरिक अनुभव होती है। बाहर के जगत से इसके कारण वह कोई प्रतिष्ठा इकट्ठी नहीं करता । यह उसके लिए फिर कभी धन नहीं बनती; क्योंकि धन उसके लिए व्यर्थ हो गया।
इसलिए लाओत्से कहता है, 'सम्मान और गौरव से जो परिचित है, लेकिन अज्ञात की तरह रहता है।'
सम्मान और गौरव से परिचित होना बुरा नहीं है। सम्मान और गौरव में यात्रा करना भी बुरा नहीं है। लेकिन वह मंजिल नहीं है, यह ध्यान रखना जरूरी है। और उस दिन की, उस क्षण की प्रतीक्षा करनी जरूरी है, जिस दिन वह व्यर्थ हो जाए। इसलिए मैं आपसे कहता हूं कि धन की यात्रा बुरी नहीं है; लेकिन उस दिन की प्रतीक्षा करनी, प्रार्थन करनी और साधना भी साथ करनी है, जिस दिन धन व्यर्थ हो जाए। छोड़ कर भाग जाएं, ऐसा आवश्यक नहीं है। व्यर्थ हो जाए, वह आपका आंतरिक अनुभव बन जाए।