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संस्कृति से गुजर कर बिसर्ग में वापसी
एक तो, जो बिना अनुभव के अज्ञात में रहे, उसका अज्ञात अज्ञात नहीं है। उसे अभी ज्ञात होने का पता ही नहीं है। इसलिए अज्ञात होने का कोई पता नहीं हो सकता। हमारे अनुभव द्वंद्व के हैं। जिसने सुख न जाना हो, उसे दुख का कोई अनुभव नहीं हो सकता। इसलिए बड़ी मजे की घटना घटती है। अक्सर, जिन्होंने सुख जाना है, वे सोचते हैं कि दूसरे लोग, जिनको वैसा सुख नहीं मिल रहा है, बहुत दुखी हैं। वह भ्रांति है। वह बिलकुल भ्रांति है।
.. आप अगर एक महल में रह रहे हैं, तो झोपड़े में रहने वाला आदमी बहुत दुख पा रहा है रह कर, ऐसा आपको लगेगा। आपका लगना ठीक है। अगर आपको झोपड़े में रहना पड़े तो आपको दुख होगा, यह भी सच है। लेकिन झोपड़े में जो रह रहा है, जो महल में नहीं रहा है, वह दुख पा रहा है महल में न रहने का, इस भ्रांति में आप मत पड़ें। वह नहीं पा सकता। दुख सुख के अनुभव के बाद ही पाया जा सकता है। जिस चीज का सुख अनुभव हो जाता है, फिर उसका अभाव दुख देता है। इसलिए दुनिया में दुख बढ़ता जा रहा है, क्योंकि चीजें और उनके अनुभव बढ़ते जा रहे हैं। आज से दस हजार साल पहले दुनिया में दुख कम था। यह मत सोचना आप कि लोग सुखी थे। क्योंकि अगर लोग सुखी होते तो दुख होता। दुख कम था, क्योंकि सुख कम था। सुख के अनुभव से ही दुख बढ़ता है।
अब कोई दस हजार साल पहले किसी आदमी को कार के न होने का दुख नहीं हो सकता था। या कि हो सकता था? आज होगा। कार के न होने का दुख आज एक वास्तविकता है। क्योंकि कार के होने का सुख एक वास्तविकता है। दस हजार साल पहले कार के न होने के दुख का कोई उपाय ही नहीं है। क्योंकि कार के होने के सुख का कोई उपाय नहीं है। सुख पहले आता है, दुख पीछे। दुख छाया है।
सम्मान, प्रतिष्ठा, यश, आदर, गौरव का अनुभव हो, तो ही अज्ञात के अनुभव में उतरा जा सकता है। अनेक लोग अनाम जीते हैं। इससे आप यह मत सोचना कि वे उस परम स्थिति को उपलब्ध हो गए हैं, जिसकी लाओत्से बात करता है। अनेक लोग अनाम जीते हैं। लेकिन ध्यान रहे, उनका अनाम होना सार्थक नहीं है, जब तक उन्हें नाम का अनुभव न हो। नाम के अनुभव के बाद जो बिना नाम के जीने को तैयार है, उसने द्वंद्व को जाना और उसने द्वंद्व को काटा। द्वंद्व जब कट जाता है, तो निर्द्वद्व चित्त परम आनंद को उपलब्ध होता है। लेकिन द्वंद्व को काटने के लिए द्वंद्व से गुजरना जरूरी है।
इसलिए लाओत्से संसार के विरोध में नहीं है। और लाओत्से नाम के भी विरोध में नहीं है, सम्मान के भी विरोध में नहीं है। वह इतना ही कह रहा है कि सम्मान के अनुभव के साथ अनाम का अनुभव और अज्ञात का अनुभव भी जुड़ जाए, तो तुम संसार के पार, जिसे मोक्ष कहें, मुक्ति कहें, उसमें प्रवेश कर जाते हो।'
. दूसरी बात भी ध्यान रखने जैसी है। और वह यह कि जिसने ठीक से सम्मान का अनुभव जाना है, वह निश्चित ही अज्ञात के अनुभव के लिए उत्सुक हो जाएगा। और जिसने सम्मान का अनुभव नहीं जाना, वह कितना ही अज्ञात के अनुभव की चेष्टा करे, उसकी चेष्टा व्यर्थ जाएगी।
उसका कारण है। उसका कारण है। बहुत से लोग उन महलों का त्याग कर देते हैं जिनमें वे कभी रहे ही नहीं। बहुत से लोग उन पदों को लात मार देते हैं, जिन पर वे कभी पहुंचे ही नहीं। आप लात कैसे मारिएगा उस सिंहासन पर, जिस पर आप कभी बैठे नहीं? आप कुछ और नहीं कर रहे हैं-अंगूर खट्टे हैं! आपकी पहुंच के बाहर हैं! आप अपने को समझा रहे हैं, सांत्वना दे रहे हैं। और तब ऐसा आदमी इस सांत्वना को भी नाम बनाने का आधार बनाएगा। यह बड़े मजे की और जटिल बात है। ऐसा आदमी, जो कहेगा कि मुझे सम्मान की कोई जरूरत नहीं, नाम की कोई जरूरत नहीं, पद की कोई जरूरत नहीं, वह पद की, सम्मान की, प्रतिष्ठा की जरूरत नहीं, इसको भी प्रतिष्ठा का कारण बनाएगा। इसको भी! जिनको हम त्यागी कहते हैं, वे क्या कर रहे हैं? वे त्याग को भी धन की तरह उपयोग कर रहे हैं। त्याग भी उनके लिए प्रतिष्ठा का कारण है।
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