________________
ताओ उपनिषद भाग ३
.
__ आक्रमण तो अधूरे से भी हो जाता है। आपको पूरा होने की जरूरत नहीं है आक्रमण में। और अक्सर आक्रमण में आप पूरे नहीं होते। जब आप क्रोध कर रहे होते हैं, तब भी आपके भीतर कोई हिस्सा कह रहा होता है: क्या कर रहे हो। न किए होते तो अच्छा था। क्रोध करते ही आप पछताते हैं। वह हिस्सा जो क्रोध में साथ नहीं था, वही पछताता है कि क्या किया, नहीं करना था। आक्रमण में कभी भी आप पूरे नहीं होते।
यह बड़े मजे की बात है कि बड़े से बड़ा योद्धा भी भयभीत होता है-बड़े से बड़ा योद्धा भी! इंग्लैंड में कहा जाता है कि लार्ड नेल्सन ने कभी जीवन में भय नहीं जाना। बड़ा सेनापति था नेल्सन। नेपोलियन को हराया। कभी भय नहीं जाना। लेकिन एक मनसविद ने नेल्सन की मनोदशा का विश्लेषण करते हुए बड़ी कीमती बात लिखी है। उसने लिखा है कि यह असंभव है कि नेल्सन ने भय न जाना हो; क्योंकि बिना भय के तो आक्रामक आदमी हो ही नहीं सकता। जिसको भयभीत नहीं किया जा सकता, उसको क्रोधित भी नहीं किया जा सकता। जिसको भयभीत नहीं किया जा सकता, उसको लड़ने के लिए राजी भी नहीं किया जा सकता। जो भयभीत नहीं होता, वह दूसरे को भी भयभीत करने नहीं जाएगा। असल में, अपने भय से बचने के लिए हम दूसरे को भयभीत करते हैं। जब दूसरा भयभीत हो जाता है, तो हमें लगता है, हमारा भय समाप्त हुआ। अगर दूसरा भयभीत न हो तो हमारा भय बढ़ता है।
उस मनसविद ने यह भी लिखा है कि अगर यह बात सच है कि नेल्सन ने कभी भय नहीं जाना, तो नेल्सन के प्रति हमारी जो धारणा है उसके एक महान योद्धा होने की, वह भी समाप्त हो जाती है। क्योंकि जिसने भय जाना ही नहीं, उसके महान योद्धा होने का क्या अर्थ है? महान योद्धा होने का तो यही अर्थ है कि हमारे जैसा ही भयभीत आदमी नेल्सन भी था और युद्ध के मैदान पर ऐसे खड़ा रहा जैसे कि बिलकुल भय न हो। तभी तो कोई अर्थ है। एक आदमी सड़क पर खड़ा है और बस आ जाए और वह डरे नहीं और खड़ा रहे, उसे भय ही न हो, और बस के नीचे कुचल कर मर जाए, तो हम उसको कोई बहादुर आदमी नहीं कहेंगे, सिर्फ मूढ़ कहेंगे। बहादुरी तो भय के अनुपात में ही होती है। अगर भय ही नहीं है, तो बहादुरी समाप्त हो गई। तब तो आदमी मूढ़ हो जाएगा। और या परमज्ञानी हो जाएगा, जहां अभय है। लेकिन जो अभय को उपलब्ध हुआ है-कभी कोई महावीर, कोई बुद्ध-वह युद्ध में उसकी उत्सुकता नहीं रह गई। युद्ध का मतलब ही है कि दूसरे को भयभीत करने की चेष्टा। और जो खुद भय नहीं जानता, उसे दूसरे को भयभीत करने में कोई रस नहीं रह जाता। दूसरे को भयभीत करना अपने भय से ही बचने की व्यवस्था है।
जितना ज्यादा भय होता है, अक्सर आदमी उतना बाहर बहादुरी दिखाता है। वह बहादुरी भीतर के भय को संतुलित करती है। वह संतुलित करती है, वह आवरण है। वह उसका जिरह-बख्तर है। वह उसकी सुरक्षा है। भीतर भय है, इसलिए बाहर सुरक्षा है। भीतर भय नहीं है, तो बहादुरी दिखाने का कोई कारण भी नहीं है।
लाओत्से कहता है, समर्पण है शक्ति; क्योंकि दिखाने का वहां कोई इरादा नहीं है। आक्रमण है कमजोरी; क्योंकि आक्रमण दिखावे पर निर्भर है। _ 'जो सम्मान और गौरव से परिचित है...।'
ध्यान रहे, यह बात जाननी जरूरी है। एक छोटा बच्चा है, उसे सम्मान और गौरव का कोई अनुभव नहीं है। अगर अभी वह अज्ञात में रहा आए, तो इसमें कुछ गौरव नहीं है, इसमें कुछ गुण नहीं है। सम्मान और गौरव से जो परिचित है, वह अज्ञात में रहे तो गुण है, तो गौरव है, तो गरिमा है।
अनुभव के बिना जो भी घटे, वह अज्ञान में घटता है। अनुभव के साथ जो घटे, वह ज्ञान में घटता है।
सम्मान और गौरव से जो परिचित और अज्ञात की तरह रहता है। जिसे पता है कि गौरव का रस क्या है जिसे पता है कि गौरव का अनुभव क्या है; जिसे पता है कि लोग जानें, यश हो, प्रतिष्ठा हो, सम्मान हो, तो प्रतीति क्या है, उसका एहसास क्या है, इसका जिसे पता है; वह अज्ञात में रहे। इसे हम समझ लें दो कारणों से।
296