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ताओ उपनिषद भाग ३
जो झलक कभी संभोग में आपको दिखी हो, अगर आपका साधु-संन्यासियों ने मस्तिष्क खराब न किया हो, जो कि बहुत मुश्किल है ऐसा आदमी खोजना जो साधु-संन्यासियों से बच जाए। क्योंकि उनका जाल बहुत पुराना; उनका धंधा बहुत प्राचीन। और उनके हाथ सब जगह फैले हुए हैं। और हर बच्चे की गरदन पर उनके हाथ पहुंच जाते हैं। और इसके पहले कि बच्चा होश से भरे, उसके मस्तिष्क में कामवासना के संबंध में अत्यंत मूढ़तापूर्ण विचार डाल दिए जाते हैं, जो उसको कभी भी संभोग के क्षण में सुखी न होने देंगे।
___ अगर मनुष्य-जाति के साथ कोई सबसे बड़ा अनाचार हुआ है, तो वह यह है। क्योंकि जो सहज सुख था, वह असंभव कर दिया गया। और उसके असंभव हो जाने से धर्म कोई फैल गया हो, ऐसा नहीं। सिर्फ अधर्म फैला। क्योंकि वह सहज सुख की संभावना अगर बनी रहे तो आदमी समाधि की खोज में निश्चित ही निकल जाएगा। जिसे जरा सी भी झलक मिली हो, वह और को पाना चाहेगा। जिसे बिलकुल भी झलक न मिली हो, वह केवल हताश हो जाता है। कुछ और पाने का सवाल ही नहीं रह जाता है। अगर मैं आपके हाथ में झूठा हीरा भी दे दूं, तो भी असली हीरे की खोज शुरू हो जाएगी। लेकिन आपके हाथ में असली हीरा भी रखा हो और चारों तरफ समझाने वाले लोग हों कि यह पत्थर है, तो उसको भी आप फेंक देंगे। और असली की खोज तो असंभव हो जाएगी। झलक, और विराटतर सत्य की तरफ ले जाती है।
इसलिए कहता हूं, अगर आपको संभोग का कभी जरा सा भी क्षण भर को भी अनुभव हुआ हो, तो आप कल्पना कर सकते हैं उस योगी की, जिसको भीतर यह संभोग घटित होता है। तो फिर यह रस चौबीस घंटे झरता रहता है। कबीर कहते हैं, जागूं कि सोऊं, उलूं कि बैलूं, वह अमृत झरता ही रहता है। वह कौन सा अमृत है? वह एक भीतर मिलन का अमृत है। अब भीतर कबीर एक हो गए।
___ इस एक हो जाने का नाम ही आत्मा है। भीतर बंटे होने का नाम मन है और भीतर एक हो जाने का नाम आत्मा है। और जब तक आपके भीतर आत्मा नहीं है, तब तक आप व्यक्ति नहीं हैं, इंडिविजुअल नहीं हैं। आप सिर्फ एक भीड़ हैं, एक समूह; बहुत से लोगों का वास है। जब यह भीड़ खो जाती है, और एक ही बच रहता है। जब यह द्वैत खो जाता है, और एक ही बच रहता है।
लाओत्से कहता है, 'जो शुक्ल के प्रति होशपूर्ण, लेकिन कृष्ण के साथ जीता है; जो प्रकाश के प्रति होशपूर्ण, लेकिन अंधेरे के साथ जीता है; वह संसार के लिए आदर्श बन जाता है। और संसार का आदर्श होकर उसको वह सनातन शक्ति प्राप्त होती है, जो कभी भूल नहीं करती। और वह पुनः अनादि अस्तित्व में वापस लौट जाता है।'
प्रकाश के प्रति होशपूर्ण, लेकिन अंधेरे में जीता है। और भी कठिन बात है। क्योंकि हम प्रकाश को चाहते हैं अंधेरे के खिलाफ। हमारी सारी वासना किसी की चाह किसी के खिलाफ से बनी है। प्रकाश!
ऋषि ने गाया है, हे प्रभु मुझे प्रकाश की तरफ ले चल! अंधेरे से हटा, प्रकाश की तरफ ले चल! मृत्यु से हटा, अमृत की तरफ ले चल!
लाओत्से की बात उस ऋषि से ज्यादा गहरी है। क्योंकि वह ऋषि सामान्य मनुष्य की वासना को ही प्रकट कर रहा है। उस ऋषि ने जो भी कहा है, वह कोई असामान्य बात नहीं है। सामान्य आदमी की वासना है कि मुझे अंधेरे से प्रकाश की तरफ, मृत्यु से अमृत की तरफ, सुख की तरफ दुख से, वेदना से आनंद की तरफ ले चल! यह तो ठीक वासना सामान्य आदमी की है। इसमें ऋषि का कुछ बहुत है नहीं। कहें कि ऋषि ने सभी सामान्य मनुष्यों की वासना को अपने इस सूत्र में प्रकट कर दिया है।
लेकिन लाओत्से की बात सचमुच उसकी बात है जिसने जाना है। वह कह रहा है, जो शुक्ल के प्रति होशपूर्ण! जागे रहना प्रकाश की तरफ, लेकिन अंधेरे के खिलाफ प्रकाश को मत चुन लेना। डरना मत अंधेरे से। अंधेरे में जीना।
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