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ताओ उपनिषद भाग ३
नहीं रह जाती, पुरुष पुरुष नहीं रह जाता; जहां दोनों खो जाते हैं, एकाकार हो जाते हैं। एक चैतन्य रह जाता है। क्षण भर को दो अहंकार नहीं रह जाते, दो शरीर नहीं रह जाते, दो मन नहीं रह जाते, दो आत्माएं नहीं रह जातीं। एक क्षण को द्वैत खो जाता है, अद्वैत हो जाता है। एक क्षण को ही होता है; एक क्षण के बाद वापस आप पुरुष हैं, स्त्री स्त्री है। इसलिए संभोग सुख भी देता है, दुख भी। सुख देता है क्षण भर को, चौबीस घंटे को दुख दे जाता है। क्योंकि मिलने में क्षण भर को सुख होता है, फिर बिछुड़न। वह अलग होना, वह अलग होना फिर दुख है। और आदमी इस सुख-दुख के बीच घूमता रहता है। क्षण भर का सुख, फिर दिनों का दुख, फिर क्षण भर का सुख, फिर दिनों का दुख।
अद्वैत एक क्षण को भी मिल जाए तो सुख मिलता है। इसलिए बुद्ध, महावीर, लाओत्से कहते हैं, यह अद्वैत अगर सदा को मिल जाए तो आनंद उपलब्ध होता है। और अद्वैत जब सदा को मिलता है, तो फिर दुख का कोई उपाय नहीं रह जाता। जब सुख क्षण भर को मिलता है, तभी दुख का उपाय होता है।
यह जो अद्वैत की तलाश है, इस तलाश का जो पहला अनुभव आदमी को हुआ है, वह संभोग से ही हुआ है। कोई और उपाय भी नहीं है। आदमी को समाधि की जो पहली झलक मिली है, वह संभोग से ही मिली है। कोई
और उपाय नहीं है। पहले मनुष्य को जब खयाल आया होगा, जब पहले विचारशील मनुष्य ने सोचा होगा कि क्यों मिलता है सुख संभोग में, तब उसे लगा होगा कि मिट जाता हूं मैं, इसलिए। तो अगर मैं पूरा ही मिट जाऊं सदा के लिए उस परम चैतन्य में, परम अस्तित्व में, तो फिर दुख नहीं रह जाएगा।
संभोग के अनुभव से ही समाधि की धारणा और समाधि का दूरगामी लक्ष्य पैदा हुआ है। बड़ा फासला है दोनों में; लेकिन दोनों में एक जोड़, एक सेतु है। जब स्त्री-पुरुष संभोग में डूब जाते हैं, तब दोहरी घटना घटती है। वह दोहरी घटना भी समझ लेनी चाहिए। क्योंकि आप दोहरे हैं-स्त्री भी, पुरुष भी। और स्त्री भी दोहरी है-स्त्री
और पुरुष भी। जब एक स्त्री और पुरुष एक जोड़े में लीन हो जाते हैं, तो आपके भीतर का पुरुष आपके बाहर की स्त्री से मिलता है और आपके भीतर की स्त्री भी आपके बाहर के पुरुष से मिलती है-यह एक रूप। और इस गहरे मिलन में आपके भीतर का पुरुष भी आपके भीतर की स्त्री से मिलता है और आपकी प्रेयसी के भीतर की स्त्री भी भीतर के पुरुष से मिलती है। तब एक वर्तुल निर्मित हो जाता है। एक क्षण को यह घटना घटती है कि आप टूटे नहीं होते, अखंड हो जाते हैं।
इस अखंडता को कामवासना के द्वारा स्थिर रूप से नहीं पाया जा सकता। इस अखंडता को केवल समाधि के द्वारा स्थिर रूप से पाया जा सकता है। लेकिन यह अखंडता की एक झलक, समाधि की एक झलक, संभोग में घटित होती है। और अगर आपको घटित नहीं होती, तो उसका मतलब ही यह है कि आपका मस्तिष्क संभोग होने ही नहीं देता। आप अपराध से भरे हुए ही संभोग में जाते हैं। आप जानते हैं कि पाप कर रहे हैं। आप जानते हैं कि गर्हित कृत्य कर रहे हैं। आप जानते हैं कि कुछ बुरा हो रहा है; मजबूरी है, इसलिए कर रहे हैं। आप यह सब जानते हुए जब संभोग में जाते हैं, तो घटना नहीं घटती। और जब घटना नहीं घटती, तब आपके समझाने वाले गुरुओं के वचन आपको बिलकुल ही ठीक मालूम पड़ते हैं कि ठीक कहा है उन्होंने कि यह सब व्यर्थ का है। और जब आप बाहर आते हैं, तो और दुख से भरे हुए लौटते हैं, और पश्चात्ताप से भरे लौटते हैं। सुख मिलता नहीं, सुख का क्षण आपका मस्तिष्क गंवा देता है, और पीछे का दुख मिलता है। तब स्वभावतः आपकी धारणा और मजबूत होती चली जाती है। यह मजबूत होती धारणा आपको संभोग से वंचित ही कर देती है।
और जिस व्यक्ति को संभोग का कोई अनुभव नहीं होता, वह अक्सर समाधि की तलाश में निकल जाता है। वह अक्सर सोचता है कि संभोग से कुछ नहीं मिलता, समाधि कैसे पाऊं? लेकिन उसके पास झलक भी नहीं है, जिससे वह समाधि की यात्रा पर निकल सके। स्त्री-पुरुष का मिलन एक गहरा मिलन है। और जो व्यक्ति उस छोटे
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