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सनातन शक्ति, जो कभी भूल नहीं करती
यह बड़े मजे की बात है। अमीबा में मिलने की इच्छा बिलकुल नहीं है; टूटने की इच्छा है। तो अमीबा जब भोजन करता है, तो टूटना चाहता है। भारी हो जाता है, टूटना चाहता है। आपको ठीक भोजन मिले तो कामवासना पैदा होती है। आप मिलना चाहते हैं। इसे थोड़ा समझ लें।
अगर आपको ठीक भोजन न मिले तो कामवासना खो जाती है। इसलिए तथाकथित साधु उपवास कर-करके कामवासना को तोड़ने का उपाय करते हैं। तथाकथित कहता हूं क्योंकि वस्तुतः मिटती नहीं है, केवल शक्ति के न होने से पता नहीं चलती। जैसे अमीबा को भोजन न दें तो फिर वह दो में नहीं टूटेगा; क्योंकि भोजन के बिना शरीर बड़ा नहीं होगा, टूटने का सवाल नहीं होगा। टूटना ही उसके जनन की प्रक्रिया है। जब आपको भोजन ठीक से मिलेगा, तो आप तत्काल दूसरे से मिलना चाहेंगे-पुरुष हैं तो स्त्री से, स्त्री हैं तो पुरुष से। क्यों? जैसे अमीबा टूट कर जन्म देता है, आप मिल कर जन्म देते हैं। और अमीबा टूट कर इसलिए जन्म दे सकता है कि उसमें स्त्री-पुरुष दोनों उसके भीतर ही मौजूद हैं। आप टूट कर जन्म नहीं दे सकते, आप मिल कर ही जन्म दे सकते हैं। क्योंकि जन्म का आधा हिस्सा आपके पास है और आधा हिस्सा स्त्री के पास है। बच्चा पैदा होगा दोनों के मिलने से। आधा आपके पास है बच्चा, आधा स्त्री के पास है। और जब तक वे दोनों न मिल जाएं, तो बच्चा पैदा नहीं होगा।
अमीबा टूटता है शक्ति बढ़ने से; आप शक्ति बढ़ने से मिलना चाहते हैं। इसलिए अगर आप भोजन न करें, कम भोजन करें, ऐसा भोजन करें जिससे आपकी शक्ति न बढ़े, तो कामवासना क्षीण हो जाएगी। मिट नहीं जाएगी। जिस दिन भोजन करेंगे, उस दिन फिर जाग जाएगी।
पुरुष-स्त्री के बीच जो मिलन का आकर्षण है, उसका कारण बायोलाजी, जीव-विज्ञान के हिसाब से यही है कि दोनों एक अखंड चीज के टुकड़े हैं और फिर से पूरा होना चाहते हैं। इसलिए संभोग में इतना सुख मालूम पड़ता है-एक क्षण के लिए पूरा हो जाने का सुख। वे जो टूटे हुए टुकड़े थे किसी एक अखंड के, वे एक क्षण के लिए इकट्ठे हो गए। वह इकट्ठे हो जाने में एक क्षण को, उन्हें जो सुख प्रतीत होता है, वह पूरा हो जाने का सुख है।
इसलिए संभोग में जो अपने को पूरा खो नहीं सकता, उसे संभोग में कोई भी सुख नहीं मिलेगा। और बहुत कम लोग हैं, जो संभोग में अपने को खो सकते हैं। क्योंकि नैतिक शिक्षाओं ने, धर्मगुरुओं ने इतना विषाक्त कर दिया है मन। उनके विषाक्त कर देने से आप संभोग से बचते नहीं; वह तो बच नहीं सकते आप। जब तक आदमी भोजन कर रहा है, तब तक धर्मगुरु जीत नहीं सकते। कोई उपाय नहीं है उनके जीतने का। जब तक आदमी स्वस्थ है, शक्तिशाली है, तब तक वे जीत नहीं सकते। वह तो आदमी को बिलकुल सिकोड़ कर, उसकी सारी शक्ति-ऊर्जा खींच कर, अगर अस्थि-कंकाल खड़े कर दिए जाएं सारे जगत में, तो ही साधु-संन्यासी जीत सकते हैं। वे जीत नहीं सकते। क्योंकि जो जैविक प्रक्रिया है, वह जिन क्रियाओं से घटित हो रही है, उनका उन्हें कोई बोध नहीं है।
लेकिन वे एक काम कर सकते हैं। वे आपके संभोग से तो आपको नहीं बचा सकते, लेकिन संभोग में आप पूरे न खो सकें, इसका उपाय कर देते हैं। उनकी बातें, उनके विचार, आपकी खोपड़ी में समा जाते हैं। फिर संभोग के क्षण में भी वह खोपड़ी आप अलग नहीं रख सकते उतार कर। वह आपके साथ होती है। संभोग भी करते हैं और पूरे लीन भी नहीं हो पाते। तब आपको अपने साधु-संन्यासियों की बातें ठीक मालूम पड़ती हैं कि वे लोग ठीक ही कहते हैं कि संभोग में कोई सुख नहीं है। यह एक विसियस सर्कल है, यह एक बड़ा दुष्ट-चक्र है। क्योंकि वे कहते हैं, इसलिए आपको सुख नहीं मालूम पड़ता; जब आप डूब ही नहीं पाते तो सुख मालूम नहीं पड़ता। डूब जाएं तो सुख मालूम पड़ेगा। यद्यपि सुख क्षणिक होगा, लेकिन मालूम पड़ेगा। क्षण भर ही सही, लेकिन वह सुख है।।
सुख क्या है? सुख है दो आधे टुकड़ों का मिल कर एक हो जाना। एक क्षण को ही यह होगा, लेकिन एक क्षण में आप भी मिट जाएंगे स्त्री भी मिट जाएगी। संभोग का मतलब है : जहां स्त्री और पुरुष मिट जाते हैं; जहां स्त्री स्त्री
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