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ताओ उपनिषद भाग ३
आपके भीतर की स्त्री और आपके भीतर का पुरुष भी एक संतुलन मांगते हैं। जिस दिन यह संतुलन पूरा हो जाता है, उस दिन, लाओत्से कहता है, आप ताओ को उपलब्ध हो गए। क्योंकि लाओत्से कहता है, इस संतुलन का नाम ही निर्दोषता है, इनोसेंस है।।
जो पुरुष को जानता और स्त्रैण में वास करता है। स्त्रैण हो नहीं जाता, स्त्रैण में वास करने लगता है। ठीक इससे विपरीत स्त्री के लिए: जो स्त्रैण को जानती है और पुरुष में वास करती है; पुरुष हो नहीं जाती। वह संसार के लिए घाटी बन जाता है।
घाटी का, वैली का, रैवाइन का लाओत्से के लिए प्रतीक अर्थ है। पहाड़ जाएं आप देखने, तो उठे हुए शिखर हैं पहाड़ के। और उन शिखरों के पास ही, निकट पड़ोस में घाटियां हैं, वैलीज हैं। आपने खयाल भी न किया होगा कि शिखर उठ ही इसलिए पाता है कि पास में घाटी बन जाती है। अगर घाटी न हो तो शिखर उठ नहीं पाएगा। शिखर घाटी से ही अपने सामान को खींचता है और उठता है। शिखर गौण है। शिखर बन नहीं सकता।
फिर शिखर आक्रामक है-जैसे अहंकार उठ गया हो आकाश में। घाटी निरहंकार, विनम्र है। शिखर को अपने को सम्हालना पड़ता है, क्योंकि गिरने का सदा डर है। जो ऊपर उठता है, उसे गिरने का डर होगा ही। घाटी अपने को सम्हालती नहीं; क्योंकि गिरने का कोई डर ही नहीं है। जो नीचे उतरता है, उसे गिरने का कोई डर नहीं रह जाता। घाटी निश्चित सोई रहती है; शिखर चिंता से भरा रहेगा। शिखर आज नहीं कल मिटेगा, क्योंकि शिखर होने में शक्ति व्यय होती है। जब शिखर अपने को सम्हाले हुए है, तो शक्ति व्यय हो रही है। घाटी में शक्ति व्यय होती ही नहीं; क्योंकि घाटी मात्र निष्क्रियता है, शून्यता है।
इसलिए लाओत्से घाटी का बड़ा उपयोग करता है। और लाओत्से यह कहता है, पुरुष शिखर की तरह है, स्त्री घाटी की तरह। यह प्रतीक भी ठीक है। और स्त्री के व्यक्तित्व, उसकी शरीर-रचना में भी यह बात सच है। पुरुष की शरीर-रचना शिखर की तरह है, स्त्री की शरीर-रचना घाटी की तरह। घाटी शांत है, शिखर सदा अशांत होगा। लेकिन जो व्यक्ति अपने भीतर दोनों का संतुलन कर लेता है, वह भी घाटी की तरह शांत हो जाता है।
'वह उस मूल रूप में स्थित रहता है, जो अखंड है।'
मूल रूप सदा अखंड है। गौण रूप सदा खंडित होते हैं। इसे हम ऐसा समझें, स्त्री और पुरुष दो खंड हैं एक ही मूल रूप के। इसीलिए स्त्री और पुरुष में इतना आकर्षण है। आकर्षण होता ही सदा उससे है जो हमारा ही खंड हो और दूर हो गया हो, जो अपना ही हो और बिछुड़ गया हो। इसे हम थोड़ा विज्ञान की यात्रा से भी समझें।
वैज्ञानिक कहते हैं कि जो जीवाणु मौलिक है जगत में, वह है अमीबा। अमीबा दोनों है, स्त्री-पुरुष साथ-साथ। अमीबा में जो जनन की प्रक्रिया है, वह बड़ी अदभुत है। अमीबा में स्त्री-पुरुष अलग-अलग नहीं हैं। इसलिए स्त्री और पुरुष के मिलन से बच्चे का जन्म नहीं हो सकता। अमीबा दोनों है एक साथ। वह स्त्री भी है और पुरुष भी है। तो अमीबा फिर जनन कैसे करता है?
उसका जनन बहुत अदभुत है। वह सिर्फ भोजन करता जाता है और बड़ा होता जाता है। जब एक सीमा के बाहर उसका शरीर हो जाता है, उसका शरीर दो टुकड़ों में टूट जाता है। ये दो टुकड़े भी स्त्री-पुरुष नहीं होते, स्त्री-पुरुष साथ-साथ होते हैं। ये दो टुकड़े प्रत्येक स्त्री-पुरुष एक साथ होते हैं। फिर ये भोजन करते जाते हैं। फिर यह शरीर बड़ा होकर एक सीमा के बाहर जाता है, शरीर दो हिस्सों में टूट जाता है। अमीबा को वैज्ञानिक कहते हैं कि यह पृथ्वी पर पैदा हुआ पहला जीवन है, पहला जीवाण है।
अमीबा में कोई कामवासना नहीं है। परम ब्रह्मचारी है। कामवासना का कोई उपाय नहीं है; क्योंकि दूसरा कोई है नहीं, जिसके प्रति वासना हो सके। और दूसरे से मिलने की कोई इच्छा अमीबा में नहीं है।
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