________________
सनातन शक्ति, जो कभी भूल नहीं करती
279
पुरुष जैसे होने की कोशिश कर रही है तो विक्षिप्तता के अतिरिक्त, पागलपन के अतिरिक्त, कोई और परिणाम नहीं हो सकता। और पुरुष जैसी किसी भी क्रिया में कोई हल, कोई सांत्वना नहीं मिल सकती। सिर्फ एक फीवरिश, एक रुग्ण बुखार पैदा हो सकता है।
लाओत्से मानता है कि निष्क्रियता प्राकृतिक है। सक्रियता तूफान है, आंधी है। और वापस गिर जाएगी, गिरना ही होगा। इसे हम समझें। कोई भी चीज सक्रिय नहीं रह सकती सदा; क्योंकि सक्रियता में शक्ति व्यय होती है। एक पत्थर पड़ा है। आप उसे उठाते हैं हाथ में और फेंकते हैं आकाश में। अभी तक निष्क्रिय पड़ा था। आपने अपने हाथ की ताकत उसे दी और सक्रिय कर दिया। आपने भी थोड़ी ताकत खोई । इसलिए आप भी अगर पत्थर उठा कर फेंकते रहेंगे तो दस-बीस पत्थर के बाद आप कहेंगे, अब मैं नहीं फेंक सकता। आपकी ताकत जा रही है पत्थर के साथ । आप अपनी शक्ति पत्थर को दे रहे हैं। तभी तो पत्थर हवा से टकराएगा, लड़ेगा और यात्रा करेगा। और जब तक सक्रिय रहेगा, तभी तक सक्रिय रहेगा, जब तक कि वह शक्ति को व्यय न कर देगा । व्यय होते ही पत्थर वापस जमीन पर गिर जाएगा। फिर निष्क्रिय हो जाएगा।
एक पत्थर जमीन पर पड़ा रह सकता है हजारों-लाखों साल तक निष्क्रिय । लेकिन फेंका गया पत्थर हजारों-लाखों साल तक यात्रा नहीं कर सकता। हम यह भी कल्पना कर सकते हैं कि पत्थर पड़ा रहे अनंत काल तक तो भी पड़ा रह सकता है। क्योंकि पड़े रहने में कोई शक्ति का अपव्यय नहीं है। लेकिन चल नहीं सकता अनंत काल तक, क्योंकि चलने में शक्ति का व्यय है । शक्ति चुकेगी और गिर जाएगा। सब सक्रियता शक्ति का व्यय है । निष्क्रियता शक्ति का संग्रह है: शक्ति व्यय नहीं होती।
इसलिए लाओत्से कहता है कि निष्क्रियता स्वभाव है। सक्रियता स्वभाव के बीच में घटी शक्ति को व्यय करने की इच्छा का परिणाम है।
स्त्री ज्यादा निष्क्रिय है। पुरुष ज्यादा सक्रिय है। इसलिए लाओत्से स्त्री को मूल में मानता है। लेकिन इससे स्त्रियां यह न सोच लें कि काम पूरा हुआ। इससे स्त्रियां यह न सोच लें कि अब कुछ करने को उनके लिए नहीं बचा। तब दूसरी बात खयाल में ले लें। जो परम संतुलन है, वह दो विरोध के बीच संतुलन है। अगर स्त्री निष्क्रिय रह कर ही निष्क्रिय रह पाती हो तो परम संतुलित नहीं है। अगर सक्रिय होकर भी भीतर निष्क्रिय रह पाती हो तो संतुलन है। उलटा, अगर पुरुष सब कुछ काम छोड़ कर जंगल में भाग कर मौन बैठ जाए तभी शांत हो पाए, तभी स्त्रैण हो पाए, तो वह भी शांति परम शांति नहीं है। क्योंकि सक्रियता के विरोध में चुनी गई शांति भी एक तरह की सक्रियता है। जहां विरोध है, वहां क्रिया है। अगर किसी ने अपने को सक्रियता के विरोध में निष्क्रियता में डुबाने की कोशिश की तो वह कोशिश भी सक्रियता है ।
इसलिए ताओ के मानने वाले, झेन को मानने वाले जो परम ज्ञानी हैं, वे कहते हैं, प्रयास से जो शांति मिल जाए, वह परम शांति नहीं है। क्योंकि प्रयास से जो मिली है, प्रयासजन्य जो है, उसमें तो सक्रियता जुड़ी ही हुई है। प्रयास से जो मिल जाए, इफर्टलेसली जो मिल जाए, वही परम शांति है।
इसका क्या मतलब हुआ? इसका मतलब हुआ कि विरोध की भाषा में जब तक हम सोचते हैं, तब तक हम शांत न हो पाएंगे। जब विरोध की भाषा ही गिर जाए, तो हम शांत हो पाएंगे। स्त्री सक्रिय होकर भी अपनी निष्क्रियता में बनी रहे, पुरुष सक्रिय होकर भी निष्क्रियता में डूब जाए, करे भी और भीतर न किया हुआ भी बना रहे, बोले भी और भीतर शांति बनी रहे। मौन होकर न बोलने में कोई कठिनाई नहीं है, बोल कर मौन को खो देने में कोई कठिनाई नहीं है। शब्द हो बाहर, मौन हो भीतर, तब जो संतुलन स्थापित होता है, दो विरोध के बीच जो सेतु बन जाता है, वह परम है, वह आत्यंतिक है। फिर उसको विनष्ट नहीं किया जा सकता।