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________________ ताओ उपनिषद भाग ३ 278 निष्क्रियता का यह तत्व भी सोचने जैसा है। क्योंकि जो तत्व जितना निष्क्रिय होगा, उतना शांत होगा, उतना मौन होगा, उतना गहन, उतना गहरा होगा। जो तत्व जितना सक्रिय होगा, उतनी सतह पर होगा, उथला होगा। लहरें तो सतह पर होती हैं; बड़ा शोरगुल होता है। सागर की गहराई में तो मौन होता है। वहां कोई लहरें भी नहीं होतीं, कोई शोरगुल भी नहीं होता । पुरुष एक तरह की सतह है, जहां बड़ी सक्रियता है, बड़े तूफान, बड़ी आंधियां हैं। स्त्री एक तरह की गहन गहराई है, जहां सब मौन और शांत है। लेकिन ध्यान रहे, वह जो पुरुष की सक्रियता है, वह उसी गहराई के ऊपर टिकी है। वह उसी गहराई का ऊपरी हिस्सा है। स्त्री केंद्र पर है, पुरुष परिधि पर है। इसलिए जब भी कोई पुरुष केंद्र में प्रवेश करता है, स्त्रियों जैसा हो जाता है। और जब भी कोई स्त्री सक्रिय होने की कोशिश करती है, सतह पर आ जाती है और पुरुष जैसी हो जाती है। पश्चिम में आज स्त्री की बड़ी दौड़ है - पुरुष जैसे हो जाने की । इधर लाओत्से पुरुषों को समझा रहा है कि वे स्त्रियों जैसे हो जाएं। वहां पश्चिम में एक दौड़ है कि स्त्रियां पुरुष जैसी हो जाएं। कारण है उसका। क्योंकि पश्चिम की पूरी संस्कृति पुरुष के द्वारा निर्मित हुई है— आक्रामक, हिंसक । उसने स्त्री को पोंछ डाला, दबा डाला, मिटा डा। यह सीमा के बाहर चला गया आक्रमण । और इस पुरुष ने सब तरह की जो शिक्षा स्त्री को दी, वह स्त्री भी उस शिक्षा में पुरुष की आकांक्षाओं, महत्वाकांक्षाओं से भर गई। आज दुनिया में जो भी शिक्षा है, वह स्त्रियों के लिए कोई भी नहीं है। वह सब पुरुषों के लिए निर्मित हुई शिक्षा है। स्त्रियां उसमें प्रवेश कर गई हैं। मौलिक ढांचा पुरुष के लिए है उस शिक्षा का स्त्री के लिए नहीं है । जिनको हम स्त्रियों की संस्थाएं कहते हैं, उनकी भी शिक्षा का ढांचा पुरुष का है। क्या पढ़ाते हैं, इससे सवाल नहीं पड़ता। कैसे पढ़ाते हैं और किसलिए पढ़ाते हैं ? और क्या है लक्ष्य ? सारा ढांचा पुरुष का है— महत्वाकांक्षा, एंबीशन, विजय, दौड़, प्रतिस्पर्धा, वह उसका सूत्र है, शिक्षा का । उसमें ही स्त्री को ढाला गया है पश्चिम में। अब स्त्री पुरुष जैसा होना चाहती है। यह बड़ी ही गहरी कठिनाई पैदा करने वाली बात है। क्योंकि स्त्री अगर पुरुष जैसे होने की कोशिश करे तो इस जगत में जो भी मूल्यवान है, जो भी कीमती है, जो भी सारभूत है, वह सब खो जाएगा। इधर पूरब में लाओत्से जैसे मनुष्यों ने दूसरी कोशिश की है कि पुरुष स्त्री जैसा होने की कोशिश करे, ताकि जो गहन है, मूल्यवान है, वह और भी थर हो जाए, और भी प्रकट हो जाए, और भी मनुष्य की अंतरात्मा में प्रविष्ट हो जाए। स्त्रियां जब पुरुष जैसी होती हैं, तो सब उथला हो जाता है। स्त्री तो उथली हो ही जाती है। स्त्री सबसे ज्यादा चीज अगर कुछ खो सकती है, तो वह पुरुष जैसे होने की दौड़ में खो सकती है—अपनी आत्मा खो सकती है । हो तो नहीं पाएगी पुरुष जैसी, लेकिन आवरण ले सकती है। और जो स्त्री पुरुष जैसा आवरण ले लेगी, उससे ज्यादा असंतुष्ट पुरुष भी खोजना मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि पुरुष के लिए अशांति स्वाभाविक है, स्त्री के लिए अशांति आरोपित होगी । पुरुष के लिए दौड़ नैसर्गिक है, स्त्री के लिए दौड़ उसकी प्रकृति के प्रतिकूल होगी। इसलिए आज अगर पश्चिम में स्त्री एकदम रुग्ण होती जाती है, और उसे कोई शांति नहीं है, तो उसका मौलिक कारण यही है। वह कभी शांत हो नहीं सकती। पुरुष भी पुरुष रह कर शांत नहीं हो पाता, तो स्त्री तो पुरुष होकर शांत कैसे हो सकेगी? पुरुष भी तभी शांत हुआ है, जब वह स्त्री जैसा गहन निष्क्रिय हो गया है, शून्य हो गया है, समर्पित हो गया है, अनाक्रामक हो गया है। तब शांत हुआ है। पुरुष भी स्त्री जैसा होकर शांत होता रहा हो तो स्त्री तो पुरुष जैसी होकर कभी शांत नहीं हो सकती। हां, पुरुष से ज्यादा अशांत हो जाएगी, विक्षिप्त हो जाएगी, पागल हो जाएगी। उसके कारण हैं। क्योंकि पुरुष जब स्त्री जैसा होता है, तो वस्तुतः वह अपने ही केंद्र पर लौट रहा है। ऐसा हम समझें कि वह जिस मां से निकल कर जगत में भागा और दौड़ा था, उसमें वापस लौट रहा है। लेकिन स्त्री अगर
SR No.002373
Book TitleTao Upnishad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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