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सनातन शक्ति, जो कभी भूल नहीं करती
इसलिए बहुत मजे की घटना घटती है: जब कोई पुरुष शांत हो जाता है, तो उसमें स्त्रैण लक्षण प्रकट हो जाते हैं। बुद्ध के चेहरे को देख कर पुरुष का कम और स्त्री का खयाल ज्यादा आता है। हमने तो इसीलिए बुद्ध, महावीर, कृष्ण, राम को दाढ़ी-मूंछ भी नहीं दी। नहीं थी, ऐसा नहीं है। दाढ़ी-मूंछ निश्चित ही थी। लेकिन जिस अवस्था को वे उपलब्ध हुए, वह स्त्रैणवत हो गई। वे इतने शांत और संतुलित हो गए कि वह जो पुरुष की आक्रामकता थी, वह खो गई। इसलिए सिर्फ प्रतीक है यह। इसलिए हमने उनको दाढ़ी-मूंछ नहीं दी। जैनों के चौबीस तीर्थंकर हैं, एक को भी दाढ़ी-मूंछ नहीं है। बड़ा मुश्किल है चौबीस ऐसे आदमी खोजना, जिनमें एक को भी दाढ़ी-मूंछ न हो। एकाध तो कभी आदमी मिल सकता है, लेकिन चौबीस खोजना बड़ा मुश्किल है। बुद्ध को दाढ़ी-मूंछ नहीं है। कृष्ण को, राम को दाढ़ी-मूंछ नहीं है। आपने कोई चित्र नहीं देखा होगा राम का दाढ़ी-मूंछ के साथ। क्या कारण है?
दाढ़ी-मूंछ निश्चित रही होगी, क्योंकि दाढ़ी-मूंछ का न होने का मतलब है कि वे ठीक से पुरुष ही नहीं थे। बीमार थे, रुग्ण थे, कुछ हारमोन की कमी थी। नहीं, यह सिर्फ प्रतीक है। हमने यह बात उनमें अनुभव की कि वे स्त्री जैसे हो गए थे। इसलिए दाढ़ी-मूंछ को प्रतीक की तरह छोड़ दिया।
नीत्शे ने तो स्पष्ट रूप से बुद्ध और जीसस को स्त्रैण कहा है, फेमिनिन कहा है। निंदा के लिए कहा है, पर बात उसकी सच है। उसने तो निंदा में कहा है, उसने तो कहा है कि इन स्त्रैण पुरुषों की बातें मान कर अगर दुनिया चलेगी तो सारी दुनिया स्त्रैण हो जाएगी। उसने तो निंदा में कहा है, क्योंकि वह तो पुरुष का पक्षपाती है। वह तो कहता है, जगत में पौरुषिकता बढ़नी चाहिए। और ये बुद्ध और क्राइस्ट और महावीर, इनके खिलाफ है; क्योंकि ये स्त्रियों के पक्षधर हैं। ये जो भी अहिंसा, करुणा की बातें कर रहे हैं, वे सब स्त्रैण गुण हैं। नीत्शे कहता है, युद्ध, हिंसा, आक्रमण, रक्त, ये पुरुष का लक्षण है। तो वह कहता है कि ये दगाबाज पुरुष धोखा दे गए पुरुषों को और स्त्रैण प्रचार कर रहे हैं। लेकिन उसकी बात में थोड़ी सचाई है। बुद्ध और महावीर स्त्रैण हो गए हैं। बहुत गहरे तल पर संतुलन हो गया है। इसलिए वह जो पुरुष का आक्रमण है, हिंसा है, वह खो गई है।
लाओत्से के लिए स्त्री मूल है, आधार है। पुरुष उसकी एक शाखा है।
इसे हम एक और दिशा से भी समझ लें। पुरुष और स्त्री के व्यक्तित्व की बनावट भी, उनके शरीर का निर्माण भी, सूचक है। पुरुष के पास जो जनन-यंत्र है, वह भी आक्रामक है। स्त्री के पास जो जनन-यंत्र है, वह भी आक्रामक नहीं है, सिर्फ ग्राहक है। इसलिए स्त्री किसी पर व्यभिचार नहीं कर सकती। असंभव है। स्त्री किसी पर आक्रमण करके व्यभिचार नहीं कर सकती। वह असंभव है। और पुरुष के लिए व्यभिचार जितना संभव है, उतना प्रेम संभव नहीं है। इसलिए जिन स्थितियों में पुरुष सोचता है कि वह प्रेम कर रहा है, उन स्थितियों में भी सौ में से नब्बे मौकों पर वह व्यभिचार ही कर रहा होता है। यह थोड़ा कठिन है। लेकिन आज मनसविद कहते हैं कि यह सही है कि पुरुष अक्सर प्रेम में भी आक्रमण ही करता है। वहां भी एक तरह की जबरदस्ती है। और स्त्री केवल इस जबरदस्ती को स्वीकार करती है। और यह पता लगाना मुश्किल है कि उसकी स्वीकृति में उसका प्रेम था, या नहीं था। क्योंकि स्त्री के प्रेम की प्रक्रिया भी पैसिव है, निष्क्रिय है। इसे भी हम समझ लें तो सूत्र में प्रवेश बहुत आसान हो जाएगा।
पुरुष के प्रेम की प्रक्रिया सक्रिय है। वह प्रेम को प्रकट करता है। उसका प्रेम भी आक्रमण बनता है। स्त्री का प्रेम केवल समर्पण है। स्त्री यदि प्रेम में बहुत ज्यादा सक्रियता बरते तो पुरुष को बेचैनी होगी। वह सिर्फ स्वीकार करे, समर्पण करे, लीन हो जाए, प्रतिरोध न करे, अप्रतिरोध में हो, सहयोगी हो। और उसका सहयोग भी पैसिव हो, सिर्फ एक आमंत्रण हो, स्वीकृति हो, सहयोग हो, प्रफुल्लता हो। लेकिन प्रेम सक्रिय न बने। उतनी ही स्त्री पुरुष को ज्यादा प्रीतिकर होगी। उसका प्रेम स्वीकार है, बहुत गहन स्वीकार है। और इसलिए पता लगाना भी बहुत आसान नहीं है। पुरुष का प्रेम तत्काल पता चल सकता है, क्योंकि सक्रियता में प्रकट होता है।
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