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श्रद्धा, संस्कार, पुनर्जठम, कीर्तन व भगवत्ता
थोड़ा जटिल है। और जटिल हो गया इस सदी के कारण। इतना जटिल नहीं था। इतना जटिल नहीं था, क्योंकि गरीबी-अमीरी बहुत सीधी-सीधी बातें थीं। और साफ था कि गरीब गरीब है अपने कर्मों के कारण, अमीर अमीर है अपने कर्मों के कारण। इसमें सचाई है।
। इसमें सचाई है, क्योंकि हम गरीब होने का संस्कार भी अर्जित करते हैं। लेकिन गरीब होने का संस्कार बड़ी बात है। सिर्फ धन से उसका संबंध नहीं है, और बहुत सी चीजों से संबंध है। जटिलता इसलिए है कि अब तक जब भी हम गरीब आदमी के बाबत सोचते थे, तो अतीत में गरीब आदमी का मतलब था जिसके पास धन नहीं है। एक ही मतलब था। लेकिन अब जमीन पर विज्ञान ने बहुत धन पैदा कर लिया। सौ-पचास वर्षों में निर्धन आदमी जमीन पर कोई भी नहीं होगा। तब गरीब के नए अर्थ शुरू हो जाएंगे। गरीब नहीं मिटेगा, सिर्फ उससे धन का जो जोड़ था, वह मिट जाएगा। गरीब के नए अर्थ शुरू हो जाएंगे। कोई आदमी बद्धि में गरीब होगा, कोई आदमी स्वास्थ्य में गरीब होगा, कोई आदमी सौंदर्य में गरीब होगा।
ध्यान रखें, धन तो मनुष्य-जाति का इतने दिनों का जो श्रम है, उसके परिणाम में सबको उपलब्ध हो जाएगा। लेकिन तब सूक्ष्मतम दरिद्रताएं प्रकट होनी शुरू हो जाएंगी। जब स्थूल दरिद्रताएं मिटती हैं, तो सूक्ष्म दरिद्रताएं शुरू हो जाती हैं। जब सबके पास धन बराबर होता है, तो धन की तो बात समाप्त हो गई। लेकिन तब बुद्धि, प्रतिभा, गुण, उनकी दीनता अखरने लगती है। दरिद्रता बड़ा शब्द है; उसकी अभिव्यक्तियां बहुत हो सकती हैं। अब तक जो बड़ी से बड़ी अभिव्यक्ति थी, वह धन की थी। भविष्य में जो बड़ी अभिव्यक्ति है, वह गुण की होगी। लेकिन यह जारी रहेगा; क्योंकि हम अलग-अलग कर्म से अलग-अलग संस्कार अर्जित करते हैं।
कुछ लोग दरिद्र होने की आदत लेकर पैदा होते हैं। कुछ लोग समद्ध होने की आदत लेकर पैदा होते हैं। जो लोग समृद्ध होने की आदत लेकर पैदा होते हैं, उनको भिखारी भी बना कर रास्ते पर खड़ा कर दो, तो भी उनकी चाल में सम्राट की रौनक होगी। जो लोग दरिद्र होने की आदत लेकर पैदा होते हैं, देखो, बड़े-बड़े महलों में भी बैठ कर उनसे ज्यादा दरिद्र आदमी खोजना मुश्किल हो जाएगा। कंजूस आदमी बह है जो दरिद्र होने की आदत लेकर पैदा हुआ है। धन भी उसके पास आ जाए तो उसको खर्च नहीं कर पाता। धन तो मिल भी सकता है समाज की व्यवस्था से, लेकिन खर्च करने की जो आदत है, उस धन को भोग लेने की जो आदत है, वह बहुत गहरा संस्कार है।
तो एक आदमी को आप धनी बना दें, और आप अचानक पाएंगे कि इतना दरिद्र वह पहले नहीं था जितना अब हो गया। अक्सर ऐसा होता है कि गरीब आदमी कंजूस नहीं होते। क्योंकि जब बचाने को ही कुछ नहीं होता तो क्या बचाना! एक गरीब आदमी को थोड़े रुपए दे दें, और जिसको भारत में हम बहुत दिन से जानते हैं, हम कहते रहे हैं-निन्यानबे का चक्कर। एक आदमी को निन्यानबे रुपए दे दें। अब उसकी एक ही इच्छा होगी कि कैसे सौ हो जाएं। यह इच्छा बड़ी स्वाभाविक है। और उसको आज जो एक रुपया मिलेगा, वह आज भूखा सो जाना चाहेगा, सौ कर लेना चाहेगा। लेकिन जब एक दफा मन को निन्यानबे से सौ करने का रस लग जाता है, तो फिर सौ से एक सौ एक करने का, फिर एक से दो करने का वह रस बढ़ता चला जाता है।
पुरानी कथा है पंचतंत्र में। एक सम्राट सदा अपने नाई से पूछता था कि त इतना प्रसन्न कैसे है? तेरे पास कुछ भी नहीं है। वह नाई कहता कि मुझे जो आप दे देते हैं, उतना बहुत है। सांझ गुजर जाती है, दिन गुजर जाता है। दूसरे दिन फिर सुबह आपकी सेवा कर जाता हूं, मालिश कर जाता हूं, बाल बना जाता हूं; जो मिल जाता है, वह दिन भर के लिए काफी है।
फिर अचानक एक दिन सम्राट ने देखा कि नाई उदास है, और नाई बड़ा बेचैन है, और लगता है रात भर सोया नहीं है। तो सम्राट ने पूछा कि आज तेरे हाथों में ताकत नहीं मालूम पड़ती; और रात तू सोया नहीं, ऐसा लगता है;
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