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धार्मिक व्यक्ति अजनबी व्यक्ति है
गुरजिएफ ने कहा कि अगर आत्मा अमर है तो मृत्यु के संबंध में पूछने में अभद्रता कैसी? और अगर मर कर प्रभु के राज्य में ही प्रवेश करना है तो आपके चेहरे पर मेरे प्रश्न से आ गई यह कालिमा कैसी? आनंद से भर जाना चाहिए कि जल्दी मरेंगे और प्रभु के राज्य में प्रवेश करेंगे।
नहीं, लेकिन दोनों में फर्क है। वह जानकारी है, वह जो बात थी आत्मा के अमर होने की, वह जानकारी है। वह शाब्दिक है, शास्त्रीय है। भय तो भीतर खड़ा है, मर न जाएं। शायद उसी भय के कारण उस जानकारी को भी पकड़ लिया है कि आत्मा अमर है। आत्मा को अमर मानने वाले लोग अक्सर मृत्यु से भयभीत लोग होते हैं। मानने वाले लोग! जानने वालों की बात करनी उचित नहीं है। मानने वाले लोग अक्सर जो मानते हैं, उससे विपरीत उनकी मनोदशा होती है। भय है मृत्यु का, तो आत्मा अमर है, इस सिद्धांत को पकड़ लेने से राहत मिलती है, कंसोलेशन मिलता है।
और हमारा धर्म कंसोलेशन, सांत्वना से ज्यादा नहीं है। इसलिए धर्म हमारी ऊपरी पर्त है। वह भी हमारी सुरक्षा का उपाय है। जानते तो हैं कि मरना पड़ेगा। इसको भुलाना चाहते हैं, इस कड़वे सत्य को झुठलाना चाहते हैं। तो बड़े-बड़े अक्षरों में लिख कर रखा हुआ है : आत्मा अमर है। लेकिन कोई आपसे मृत्यु की पूछे, आपकी मृत्यु की पूछे, तो धक्का लगता है। क्यों? क्योंकि आत्मा अमर है, वह ऊपर चिपकाई हुई बात है। भीतर तो भय मौत का खड़ा है।
कब्रिस्तान हम गांव के बाहर बनाते हैं; मरघट गांव के बाहर बनाते हैं। कोई मर जाए तो माताएं अपने बच्चों को भीतर बुला लेती हैं-भीतर आ जाओ, कोई अरथी गुजरती है। जैसे मृत्यु को हम चाहते हैं कि किसी तरह भूल जाएं, वह दिखाई न पड़े। घर में कोई मर जाए तो घड़ी भर भी उसको रखना मुश्किल हो जाता है। शायद कल उस आदमी से हमने कहा हो कि तुम्हारे बिना हम मर जाएंगे, एक क्षण जी न सकेंगे। अब वह मर गए। अब क्षण भर भी उनको घर में रखना मुश्किल है। क्या है तकलीफ? थोड़ी देर रुकने दें। ऐसे इतने वर्ष तक वह व्यक्ति इस घर में था, दस-पांच दिन और रुके तो हर्ज क्या है?
दस-पांच दिन में आप पागल हो जाएंगे, अगर उसकी लाश रखी रहे तो। क्यों? क्योंकि उसकी लाश हर घड़ी आपको मौत की याद दिलाएगी। हर घड़ी उसका मरा होना आपके अपने मरने की सूचना बन जाएगा। एक घर में एक आदमी की मुर्दा लाश को रख लें, उस घर में फिर कोई आदमी जिंदा नहीं रह सकेगा।
इसलिए जल्दी हम निपटाते हैं। और घर के लोगों को तकलीफ न हो, इसलिए पास-पड़ोस के लोग इकट्ठे होकर जल्दी निपटाते हैं। क्योंकि ये पड़ोस के लोगों के घर में जब तकलीफ आती है तो दूसरे निपटाते हैं। यह सब एक पारस्परिक समझौता है : आदमी मरे, तो उसे जल्दी हटाओ; जिंदा लोगों के बीच से हटाओ। क्योंकि मौत को हम कहीं दूर अंत्यज की तरह व्यवहार करते हैं। वह गांव के बाहर रहे; गांव के भीतर, भरे बाजार में उसका कोई पता न चले। हमें एहसास न हो कि मौत जैसी कोई चीज भी है। मजबूरी है कि आदमी मरते हैं, तो हम उन्हें जल्दी से डिसपोज करते हैं, उनको हम निपटाते हैं। क्यों?
तो हमारे लिए जीवन और मृत्यु एक अर्थ नहीं रख सकते। और हमारे लिए हां और न भी एक अर्थ नहीं रख सकते। और सुख और दुख को हम कैसे माने कि एक ही हैं।
लेकिन कभी आपने खयाल किया कि अगर आप नाम न दें तो कई बार आप बड़ी मुश्किल में पड़ेंगे बताने में कि यह सुख है या दुख है। नामकरण से बड़ी आसानी हो जाती है। नाम दे देते हैं यह सुख है, तो तत्काल मन मान लेता है कि सुख है। नाम दे देते हैं दुख है, तो मान लेते हैं कि दुख है। कभी आपने खयाल न किया हो, लेकिन करना चाहिए निरीक्षण कि अगर हम नाम न दें तो कौन सी चीज सुख होगी और कौन सी चीज दुख होगी? और अगर हम नाम देने की जल्दी न करें, सिर्फ अनुभूति पर जीएं, तो एक बड़ी अदभुत बात मालूम होगी कि जिसको हम सुख कहते हैं वह किसी भी क्षण दुख हो जाता है और जिसको हम दुख कहते हैं वह किसी भी क्षण सुख हो जाता है।