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________________ ताओ उपनिषद भाग ३ उस गुरु ने कहा, सत्य को पाने का और कोई उपाय नहीं है। पात्र बन जाना काफी है। हम पर निर्भर है। गुरु तो चुप रहा था। एक ने समझा न, एक ने समझा हां। फासला बड़ा भी हो सकता है। फासला शून्य भी हो सकता है। लाओत्से कहता है, सब फासले ज्ञान के, पांडित्य के फासले हैं। हां और न के बीच अंतर क्या है? हां और न लाओत्से के लिए बहुत सी बातों के प्रतीक हैं। हां है जीवन का प्रतीक; न है मृत्यु का प्रतीक। हां है सुख का प्रतीक; न है दुख का प्रतीक। हां है सफलता का प्रतीक; न है असफलता का प्रतीक। हां है पाजिटिव, विधायक का प्रतीक; और न है निगेटिव, नकारात्मक का प्रतीक। लाओत्से यह कह रहा है कि विधेय में और नकार में अंतर ही क्या है? जन्म और मृत्यु में अंतर ही क्या है? अंतर बहुत है। जीवन को हम चाहते हैं, मृत्यु को हम नहीं चाहते; फिर अंतर बहुत है। चाह के कारण अंतर है। जीवन और मृत्यु में कोई अंतर नहीं है। जिसकी कोई चाह नहीं, उसे जीवन और मृत्यु में फिर क्या अंतर है? जिस द्वार से हम बाहर निकलते हैं, उसी से हम भीतर आते हैं। जिन सीढ़ियों से हम ऊपर चढ़ते हैं, उन्हीं से हम नीचे उतरते हैं। जब आप ऊपर चढ़ रहे होते हैं तब, और जब आप नीचे उतर रहे होते हैं तब, सीढ़ियों में कोई अंतर होता है? जब आप बाहर जाते हैं तब, और जब आप भीतर आते हैं तब, द्वार में कोई अंतर होता है? वही द्वार है, वे ही सीढ़ियां हैं। वही जन्म है; वही मृत्यु है। लेकिन हमारी अपेक्षाएं बड़ा अंतर कर देती हैं। हमारी जानकारी बड़ा अंतर कर देती है। हम सबको सिखाया गया है, मृत्यु कुछ बुरी है। यह हमारी सिखावन है। क्योंकि मृत्यु को हम जानते तो नहीं हैं। मृत्यु बुरी है, यह हमें सिखाया गया है। और जीवन शुभ है, यह हमें सिखाया गया है। और जीवन है अहोभाव, धन्यता, और मृत्यु है दुर्भाग्य, यह हमें सिखाया गया है। मृत्यु को हम जानते नहीं, यह तो पक्का ही है। जीवन को भी हम नहीं जानते हैं। वह उतना पक्का नहीं मालूम पड़ता; क्योंकि हमें लगता है कि हम जीवित हैं तो जीवन को तो जानते ही होंगे। जरूरी नहीं है कि जो जीवित है, वह जीवन को जान ही ले। क्योंकि जो जीवन को जान लेगा, वह मृत्यु को भी जान लेगा। यह एक ही द्वार है; बाहर और भीतर आने का फर्क है। जो जीवन को जान लेगा, वह मृत्यु को भी जान लेगा। क्योंकि मृत्यु कोई जीवन के विपरीत घटना नहीं है। जैसे बायां और दायां पैर हैं, और चलना हो तो दोनों का उपयोग करना होता है। ऐसे ही जो अस्तित्व है, वह जीवन और मृत्यु उसके दोनों पैर हैं। और अस्तित्व हो ही नहीं सकता; उन दोनों पैरों के कारण ही अस्तित्व की सारी गति है। एक को भी जो जान लेगा, वह दूसरे को जान ही लेगा। क्योंकि दूसरा विपरीत नहीं है, पृथक भी नहीं है। एक ही प्रक्रिया के दो अंग हैं। लेकिन हमें सिखाया गया है। गुरजिएफ ने लिखा है। गुरजिएफ की आदत थी लोगों को छेड़ने की। इससे न मालूम कितने लोग उससे नाराज थे। एक भोज में गुरजिएफ सम्मिलित था और एक बड़ा बिशप, एक बड़ा धर्मगुरु भी निमंत्रित था। गुरजिएफ के पड़ोस में ही धर्मगुरु को बिठाया गया था। दोनों महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। गुरजिएफ ने बिशप को पूछा, धर्मगुरु को पूछा कि क्या आपका खयाल है आत्मा के संबंध में? आत्मा अमर है? धर्मगुरु ने कहा, निश्चित ही, इसमें भी कोई संदेह है? आत्मा शाश्वत है, अमर है। उसका कोई अंत नहीं। उसकी कोई मृत्यु नहीं। गुरजिएफ ने तब पूछा, और आप कब तक मरेंगे, इसके संबंध में क्या खयाल है? और मरने के बाद आप कहां पहुंचेंगे, इस संबंध में क्या खयाल है? तत्काल बिशप का चेहरा बिगड़ गया। यह भी कोई बात है? भद्र आदमी ऐसी बातें पूछते हैं? अभद्रता हो गई। कब मरिएगा? मरने के बाद कहां जाइएगा? बिशप ने तेजी से कहा कि कहां जाऊंगा, परमात्मा के राज्य में प्रवेश करूंगा! लेकिन भद्र आदमी ऐसी बातें पूछते नहीं हैं।
SR No.002373
Book TitleTao Upnishad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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