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धार्मिक व्यक्ति अजबबी व्यक्ति है
वह फकीर जाकर गांव के बाहर सो गया। पूर्णिमा की रात थी। और जिस वृक्ष के नीचे सोया था, उस वृक्ष के फूल पूर्णिमा की रात में आवाज करके खुलते हैं। जब भी फूल की आवाज होती है, वह आंख खोल कर ऊपर देखता है-चांद भाग रहा है, फूल खिल रहे हैं, सुगंध बरस रही है।
सुबह फिर उस फकीर ने वापस आकर उस आदमी के द्वार पर दस्तक दी। उस आदमी ने दरवाजा खोला। फकीर ने झुक कर तीन बार पुनः-पुनः कहा, धन्यवाद! धन्यवाद! धन्यवाद! उस आदमी ने कहा, अब धन्यवाद की क्या जरूरत? तुम आदमी पागल मालूम पड़ते हो। रात मैंने मना किया था, तब तुमने धन्यवाद दिया। अब?
उस फकीर ने कहा, अगर तुम रात मुझे मना न करते तो जिस पूर्णिमा की रात का मैंने आनंद लिया है, वह असंभव हो जाता। तुमने अगर हां भर दी होती तो मैं तुम्हारे छप्पर के नीचे सोता। मैं एक वृक्ष के नीचे सोया। और मेरे जीवन में इतने सौंदर्य का क्षण मैंने कभी नहीं जाना। एक बात तुमसे कहने आया हूं, बुरा न मानना; तुम्हारे धर्म का फकीर भी आए, उसे भी मत ठहरने देना।
अगर आपको इस घर से इनकार करके लौटा दिया गया होता तो पूर्णिमा की रात पहली तो बात तत्काल अमावस की रात हो जाती। या नहीं हो जाती? पूर्णिमा की रात तो बच ही नहीं सकती थी, तत्काल अमावस हो जाती। फूल खिल ही नहीं सकते थे। उनकी इतनी धीमी आवाज, आपके भीतर जो तुमुलनाद चलता, सुनाई भी नहीं पड़ती। आपके भीतर जो कोलाहल होता, जो हाहाकार मचता, उसके सामने कोमल फूलों के खिलने की आवाज कहां सुनाई पड़ सकती थी? आप अमावस की रात में सोते। सोते भी कैसे! चिंतित और बेचैन और परेशान होते। हां और न में बड़ा अंतर होता। इस आदमी को हां और न में कोई अंतर न था।
हां और न का अंतर, सुख और दुख का अंतर धारणा का अंतर है, अपेक्षा का अंतर है; यथार्थ का अंतर नहीं है। लेकिन हम सभी कुछ यथार्थ पर थोप देते हैं। हम कहते हैं, उसने ऐसा कहा, इसलिए मैं दुखी हूं; उसने ऐसा व्यवहार किया, इसलिए मैं सुखी हूं। नहीं, कोई संबंध किसी दूसरे से नहीं है सुख और दुख का। उसने कुछ भी किया हो, आप सुखी हो सकते हैं; उसने कुछ भी किया हो, आप दुखी हो सकते हैं। उसका करना असली बात नहीं है। उसने जो किया, उसकी व्याख्या आपने क्या की, उस पर ही सब कुछ निर्भर है। आपकी अपनी व्याख्या ही आपका स्वर्ग और आपका नरक है।
सुना है मैंने, दो मित्र गुरु की तलाश में थे। वे दोनों एक सूफी फकीर के द्वार पर पहुंचे। दोनों ने निवेदन किया, सत्य की उन्हें खोज है, तलाश है प्रभु की; रास्ता कोई बताएं। वह फकीर चुप बैठा रहा, जैसे उसने सुना ही न हो। एक मित्र ने सोचा, इस आदमी से क्या मिलेगा? या तो बहरा मालूम पड़ता है और या फिर बहुत अहंकारी है। हम इतने सत्य के खोजी, इतने दूर से चल कर आए हैं और यह आदमी ध्यान भी नहीं दे रहा है, जैसे हम कोई कीड़े-मकोड़े हों। दूसरे ने सोचा, शायद मेरे प्रश्न में कोई भूल हो गई है। शायद यह पूछने का ढंग अनुचित है। शायद सत्य की जिज्ञासा इस भांति नहीं की जाती। शायद इतनी जल्दबाजी, इतना अधैर्य दुर्गुण है। दोनों विदा हो गए।
जिसने सोचा था कि यह आदमी अहंकारी है, वह वर्षों बाद भी वैसे का वैसा था। लेकिन जिसने सोचा था कि शायद मेरी जिज्ञासा में, मेरे पूछने के ढंग में, मेरे अधैर्य में ही कोई भूल है, वह अपने को बदलने में लग गया। वर्षों बाद पहला आदमी अपने नरक में ही पड़ा था; और गर्त में हो गया था। दूसरा पूरा शांत हो गया। दूसरा धन्यवाद देने गया गुरु को। और पहला आदमी उस आदमी के खिलाफ वर्षों से गालियां बोल रहा था कि वह आदमी हमारे ऊपर ध्यान भी नहीं दिया; अहंकारी है; अपने को न मालूम क्या समझता है। दूसरा आदमी धन्यवाद देने गया कि आपकी कृपा है, आप उस दिन नहीं बोले; मैं निश्चित समझ गया कि मेरी कोई योग्यता और पात्रता नहीं है। मैं अपने को पात्र बनाने की कोशिश में ही सत्य के दर्शन को उपलब्ध हो गया हूं। मैं धन्यवाद देने आया हूं।