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ताओ उपनिषद भाग ३
शब्द ओढ़ाते हैं; अपने ही रूप देते हैं। और यथार्थ न हमारे रूपों को मानता है, न हमारे शब्दों को, न हमारे सिद्धांतों को। और तब हर घड़ी यथार्थ में और हमारे ज्ञान में संघर्ष खड़ा होता है। वही संघर्ष हमारी मुसीबत है। हर घड़ी हममें और यथार्थ में तालमेल छूट जाता है। वह तालमेल का छूट जाना ही हमारी आंतरिक अशांति है। प्रतिपल आपकी अपेक्षा है, एक्सपेक्टेशन है, वह पूरा नहीं होता। अपेक्षा छूट जाती है, टूट जाती है। दुख और पीड़ा और कांटे छिद जाते हैं भीतर। वे कांटे आपकी ही अपेक्षा से जन्मते हैं। अपेक्षा हमारी जानकारी से पैदा होती है। हम पहले से ही जाने बैठे हुए हैं।
लाओत्से कहता है, तुम ऐसे जीयो, जैसे तुम कुछ जानते नहीं हो। तुम यथार्थ के पास इस भांति पहुंचो कि तुम्हारे पास कोई पूर्व-निष्कर्ष नहीं हैं, कोई कनक्लूजंस, कोई निष्पत्तियां नहीं हैं। न तुम्हारे पास निष्पत्तियां हैं, न तुम्हारे पास अपेक्षाएं हैं। फूल के पास पहुंचो और जानो कि फूल कैसा है। मत तय करके चलो कि शाश्वत रहे, कभी बदले नहीं, कुम्हलाए नहीं। ये धारणाएं छोड़ कर पहुंचो। फूल जैसा है, उसको वैसा ही जान कर जी लो। तब फूल एक आनंद है। तब उसका जन्म भी एक आनंद है और उसकी मृत्यु भी एक आनंद है। तब उसका खिलना भी एक गीत है और तब उसका बंद हो जाना भी एक गीत है। और तब दोनों में कोई विरोध नहीं; एक ही प्रक्रिया के अंग हैं।
जीवन में दुख नहीं है; दुख पैदा होता है अपेक्षाओं से। और अपेक्षाएं शिक्षाओं का परिणाम हैं। हम सब एक क्षण को भी बिना अपेक्षाओं के नहीं जीते; उठते हैं, बैठते हैं, चलते हैं, अपेक्षाओं का एक जगत हमारे चारों तरफ चलता है। लाओत्से कहता है, यही हैं तुम्हारी मुसीबतों के आधार।
'हां और न के बीच अंतर क्या है?'
अगर अपेक्षाएं न हों तो हां और न के बीच कोई अंतर नहीं है। अगर अपेक्षाएं हों तो हां और न के बीच से ज्यादा बड़ा अंतर और कहां होगा? मैं आपसे कुछ मांगता हूं; आप कहते हैं हां, या कहते हैं न। अगर मेरी मांग अपेक्षा से भरी है तो हां और न में बड़ा अंतर होगा। हां मेरा सुख बनेगी, न मेरा दुख हो जाएगा। लेकिन अगर मेरी कोई अपेक्षा नहीं है, अगर मैं पहले से कुछ तय करके नहीं चला हूं कि क्या होगा निष्कर्ष, क्या होगा परिणाम, . अगर परिणाम के संबंध में मैंने कुछ धारणा नहीं बनाई है तो आप हां कहें, आप न कहें, इन दोनों में कोई अंतर नहीं है। हां और न के बीच जो अंतर है, वह दो शब्दों के बीच अंतर नहीं है, वह दो अपेक्षाओं के बीच अंतर है। भाषाकोश में तो हां और न में अंतर होगा, विपरीत हैं दोनों; लेकिन जीवन की गहराई में, जहां व्यक्ति अपेक्षाशून्य चलता है, हां और न में कोई अंतर नहीं है।
एक फकीर एक गांव से गुजर रहा है। उसने एक दरवाजे पर दस्तक दी। आधी रात हो गई है। और वह भटक गया है। और जिस गांव पहुंचना था, वहां न पहुंच कर दूसरे गांव पहुंच गया है। द्वार खुला। घर के लोगों ने कहा, क्या चाहते हैं? उस फकीर ने कहा कि अगर रात भर विश्राम का मौका मिल जाए! मैं भटक गया हूं; और जहां पहुंचना था, नहीं पहुंच पाया हूं। घर के लोगों ने पूछा कि धर्म कौन सा है तुम्हारा ?
क्योंकि हम मनुष्यों को तो नहीं ठहराते, धर्मों को ठहराते हैं। __ उस फकीर ने अपना धर्म बताया। द्वार बंद हो गए। घर के लोगों ने कहा, क्षमा करें, हम इस धर्म के मानने वाले नहीं; न केवल न मानने वाले हैं, बल्कि हम इसके विरोधी हैं। और इस गांव में आपको कहीं भी जगह न मिलेगी। यह गांव एक ही धर्म मानने वाले लोगों का है। आप व्यर्थ परेशान न हों। उस फकीर ने धन्यवाद दिया और चलने लगा। उस मकान के मालिक ने पूछा, लेकिन धन्यवाद कैसा? हम ठहराने से इनकार कर दिए हैं, धन्यवाद कैसा? उस फकीर ने कहा, तुमने कुछ तो किया। तुम क्या करोगे, इस संबंध में हमारी कोई धारणा न थी। द्वार खुलेगा, हां और न कुछ भी होगा। तुमने स्पष्ट न कहा, इतना भी आधी रात कष्ट उठाया, उसके लिए धन्यवाद!