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स्वभाव की उपलब्धि अयात्रा में है
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ब्रह्मांड में, जहां सुख उपलब्ध हो गया है, जहां सुख स्थिति बन गई है। यहां दुख स्थिति है, सुख आशा है। वहां सुख स्थिति बन गई है।
लेकिन वहां भी जहां सुख स्थिति बन गई है, जहां आनंद बरस गया है, वहां भी अभी थोड़ी सी यात्रा शेष है। क्योंकि जब तक हम कहते हैं, मैं आनंदित हूं, तब तक भी मैं और आनंद में थोड़ा सा फासला बना रहता है। उन फासला भी कष्टपूर्ण है, उतने फासले में भी बेचैनी है, उतनी दूरी भी अखरती है।
लाओत्से कहता है, 'स्वर्ग अपने को ताओ के अनुरूप बना रहे हैं।'
स्वर्ग भी दौड़ रहे हैं; वे उस परम नियति में प्रवेश कर जाना चाहते हैं, उस नियम के साथ एक हो जाना चाहते हैं, जो सभी नियमों का आधार है। लेकिन उनकी दौड़ भी तब तक पूरी न हो पाएगी। क्योंकि ताओ भी—यह थोड़ा अंतिम, कठिन बात है—
'ताओ भी अपने को स्वभाव के अनुरूप बनाने में लगा है।'
जिस ताओ की हम बात कर सकते हैं, वह ताओ वास्तविक नहीं, सिद्धांत हो जाता है। जिस ताओ की हम कल्पना कर सकते हैं, जो कंसीवेबल है, जिसकी हम धारणा बना सकते हैं, वह भी हमारी धारणा हो जाता है । वैसी धारणा का ताओ भी अंतिम नहीं है। अंतिम तो वह ताओ है, जहां सब धारणाएं गिर जाती हैं और सिर्फ स्वभाव, होना मात्र, जस्ट एक्झिस्टेंस शेष रह जाता है । ताओ भी सिर्फ रह जाए होने मात्र में, होना मात्र ही जहां अंत हो जाए !
थोड़ा समझ लें।
एक अंग्रेजी में शब्द है बिकमिंग, होने की दौड़ और एक शब्द है बीइंग, होना मात्र । जब तक दौड़ है, तब तक दुख है। अगर ताओ भी स्वभाव के अनुकूल होना चाह रहा है तो दुख शेष रहेगा। क्योंकि होना तो सदा भविष्य में होगा, अभी तो नहीं हो सकता। समय लगेगा। कुछ यात्रा करनी पड़ेगी। बीइंग, अस्तित्व, सत्य अभी है।
मिलारेपा, तिब्बत का एक फकीर, अपने गुरु मारपा के पास गया। मारपा आंख बंद किए बैठा था। मिलारेपा ने कहा कि क्या आप भीतर प्रवेश कर रहे हैं? एक भीतरी यात्रा पर हैं ?
मारपा ने आंख खोली और उसने कहा, यात्राएं सब समाप्त हो गईं। नहीं, मैं भीतर प्रवेश नहीं कर रहा हूं, मैं भीतर हूं। प्रवेश तो वह करता है जो बाहर हो । मारपा ने कहा, मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूं, मैं केवल हूं।
यह जो होना मात्र है, इसका नाम स्वभाव है। स्वभाव में फिर कोई यात्रा नहीं है, कोई भविष्य नहीं है, कहीं जाना नहीं है। इसका यह मतलब नहीं है कि जाना नहीं होगा। इसका यह मतलब भी नहीं है कि भविष्य नहीं होगा । इसका केवल इतना मतलब है कि यात्रा नहीं होगी, दौड़ नहीं होगी, पहुंचने की कोई वासना नहीं होगी, कामना नहीं होगी। जहां सब कामनाएं गिर जाती हैं, जहां सब होने के स्वप्न बिखर जाते हैं, जहां होने से तथाता हो जाती है, एकता हो जाती है।
लाओत्से कहता है, इसका अर्थ हुआ कि चाहे कोई कहीं भी यात्रा कर रहा हो, किसी भी दिशा में, अंतिम यात्रा स्वभाव की दिशा में हो रही है। इसलिए जो व्यक्ति इस सूत्र को समझ ले और सीधा स्वभाव की यात्रा में लग जाए, वह जीवन में जो भी पाने योग्य है, उसे पा लेगा। और जीवन में जो भी पाने योग्य नहीं है, वह अपने आप गिर जाएगा, तिरोहित हो जाएगा। जो व्यक्ति बीच की यात्राएं चुनेंगे, वे कष्ट में रहेंगे। क्योंकि जिससे मिलने वे जा रहे हैं, वह खुद यात्रा पर है।
ऐसा समझो कि आप बंबई से दिल्ली की यात्रा पर निकलते हैं। दिल्ली पहुंच जाते हैं आप, क्योंकि दिल्ली की स्टेशन एक जगह ठहरी है। अगर दिल्ली की स्टेशन भी यात्रा पर हो तो फिर बहुत मुश्किल है। फिर आप पहुंच नहीं पाएंगे। वह तो दिल्ली ठहरी है, इसलिए आप दिल्ली पहुंच जाते हैं।