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________________ ताओ उपनिषद भाग ३ महावीर के पास एक सुख है, एक छाया है; जैसे बरगद के नीचे छाया होती है, वैसे ही उस छाया के पास कोई आए, तो जैसे दूर की यात्रा की थकान मिट जाए, हजार-हजार लोग उनके पास बैठें तो शीतल हो जाएं। लेकिन उसका कारण है कि वे कुछ और खोजने में लगे हैं। सुख बाई-प्रोडक्ट है; वह खोज नहीं है उनकी। जो सुख को खोजने उनके पास आया, वह तपस्वी के दुख में पड़ जाएगा। क्योंकि तब वह महावीर की नकल करेगा; वह सोचेगा, जो-जो महावीर कर रहे हैं वह-वह मैं करूं, तो यह सुख मुझे मिल जाएगा। सुख इमीटेटिव है। आपको दिखता है कि किसी के हाथ में एक छल्ला दिखाई पड़ जाता है हीरे का। तो लगता है, पता नहीं कितना सुख मिल रहा है इसको। अब यह हीरे का छल्ला मेरे हाथ में हो जाए तो मुझे भी सुख मिल जाए। छल्ला हीरे का हो, या किसी और चीज का हो, मिलते ही सिर्फ बोझ का अनुभव होता है, बंधन हो जाता है। महावीर कुछ और खोज रहे हैं। जहां-जहां हमें झलक दिखाई पड़ती है...। अगर आपको रात के सन्नाटे में सुख की झलक दिखाई पड़ती है, तो उसका अर्थ है रात किसी अपने से बड़े सूत्र के साथ एक हो गई है। अगर आपको चांद से झलक मिलती है किसी शीतलता की तो उसका अर्थ है यह पूर्णिमा का चांद किसी बड़े सूत्र के साथ एक हो गया है। अगर आप जंगल में जाते हैं और हरियाली आपको मोह लेती है और मन नाचने लगता है तो उसका अर्थ है यह जंगल किसी आनंद के सूत्र में डूबा हुआ है। इसके उस डूबने से यह सुख पैदा हो रहा है। _ 'यह पृथ्वी अपने को स्वर्ग के अनुरूप बनाती है।' पृथ्वी, चारों तरफ जो है, पदार्थ, वह सब अपने को स्वर्ग बनाने में लगा हुआ है। एक छोटा सा बीज भी अंकुरित होकर फूल बनना चाहता है। एक छोटा सा बीज भी पृथ्वी से स्वर्ग बनना चाहता है। चारों तरफ चेष्टा चल रही है। आदमी पृथ्वी के अनुरूप बनाने की कोशिश में ही भटकता है। लेकिन पृथ्वी भी स्वर्ग को उपलब्ध हो नहीं पाती। फूल खिलते हैं और मुरझाते हैं। चांद पूरा हो जाता है और फिर घटने लगता है। यहां कोई चीज शाश्वत नहीं हो पाती। पृथ्वी भी अपने को स्वर्ग बना नहीं पाती। क्योंकि स्वर्ग अपने को ताओ के अनुरूप बना रहा है। स्वर्ग भी किसी और की तलाश में है। हमें स्वर्ग का कोई पता नहीं है, इसलिए मुश्किल होगा। पृथ्वी तक समझ आसान है कि पृथ्वी भी स्वर्ग बनना चाहती है। इसलिए कहीं-कहीं, कश्मीर में हम कहते हैं, पृथ्वी का स्वर्ग। कुछ खिल गया है। झीलें, आकाश, पहाड़, पर्वत, वृक्ष, सबमें कोई चीज खिल गई है-कुछ जो पृथ्वी के दूसरे हिस्सों में मुआयी है-तो लगता है कि यहां स्वर्ग है। वह झलक है एक। लेकिन स्वर्ग का हमें कोई पता नहीं है। पृथ्वी भी स्वर्ग को उपलब्ध हो नहीं पाती, सिर्फ कोशिश करती रहती है पाने की। क्योंकि स्वर्ग ताओ के अनुरूप होना चाह रहा है। समझने के लिए ऐसा खयाल कर लें कि जिसे हम जानते हैं, यह अस्तित्व का अंत नहीं है। जिस पृथ्वी को हम जानते हैं, यह जीवन की समाप्ति नहीं है। और पृथ्वियां हैं, और तारे हैं, और ग्रह हैं, और उपग्रह हैं। वैज्ञानिक कहते हैं कि कोई पचास हजार पृथ्वियों पर जीवन की संभावना है। कोई तीन अरब महासूर्य हैं। यह हमारा तो एक छोटा सा सूरज का परिवार है। इस तरह के तीन अरब सूर्य-परिवार हैं। और हमारा सूरज तो बहुत मीडियाकर, मध्यस्थ, मध्यमवर्गीय सूरज है। इससे साठ-साठ हजार गुने बड़े सूर्य हैं। बड़ा विस्तार है। महावीर ने, बुद्ध ने, लाओत्से ने, कृष्ण ने इस पृथ्वी से ज्यादा सुख के तल अनुभव करने वाले ग्रहों-उपग्रहों की चर्चा की है-उनका नाम स्वर्ग है-इससे भी जहां जीवन श्रेष्ठतर हो गया है, इससे भी जहां जीवन ज्यादा खिल गया है! ऐसा समझें हम, एक कली अधखिली रह गई हो, एक कली खिल गई हो, एक कली फूल बन गई हो! अगर बहुत पृथ्वियां हैं, तो कोई पृथ्वी अभी सिकुड़ी पड़ी होगी, कोई पृथ्वी खिल रही होगी, कोई बहुत खिल गई होगी, कहीं चेतना ने नए आयाम पा लिए होंगे। स्वर्ग का मतलब इतना है-ऐसी पृथ्वियां, ऐसे जीवन के तल इस 190
SR No.002373
Book TitleTao Upnishad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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