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सदगुण के तलछट ऑर कोई
मैंने उनसे पूछा कि इस जमाने में किस जाग्रत व्यक्ति के चरणों में जाकर आप बैठे हैं? या तो आप यह कहिए कि कोई जाग्रत व्यक्ति है ही नहीं। छोड़िए जाग्रत व्यक्ति को। आपसे भी कोई श्रेष्ठ व्यक्ति इस जमीन पर इस समय है? वे थोड़ा बेचैन हुए। मैंने कहा, आप ढाई हजार साल बाद फिर पैदा होकर इसी तरह सिर पीटेंगे कि काश, उस वक्त हम होते तो चरणों में जाकर बैठते। चरणों में बैठने की आपकी वृत्ति नहीं है। लेकिन ढाई हजार साल का लंबा प्रचार है। तो बुद्ध, बुद्ध से आपकी कोई पहचान नहीं हो सकती, प्रचार से संबंध है। .
जिन्होंने जीसस को सूली लगाई, उन्हें जरा भी नहीं लगा कि कोई खास आदमी को सूली लगा रहे हैं। और अब वे पैदा हो जाएं तो वे सोचेंगे कि काश, जीसस के वक्त में होते तो चरणों में बैठ कर अमृत मिल जाता। और यही उनको सूली लगाने वाले थे! एक लाख आदमी इकट्ठा था जीसस को सूली लगाते वक्त, एक को नहीं लगा कि किसी आदमी को हम मार रहे हैं जिसके चरणों में बैठ कर लोग कभी तड़पेंगे जिसके चरणों में बैठने को। लेकिन चरणों से हमें मतलब नहीं, चरणों का प्रचार चाहिए।
केंडी में, श्रीलंका में केंडी के मंदिर में एक दांत रखा हुआ है। उसको लोग हजारों साल से सिर झुका रहे हैं। खयाल है कि वह बुद्ध का दांत है। और यह सिर्फ प्रचार है। क्योंकि उसकी खोज-बीन हुई तो पता चला कि वह आदमी का भी दांत नहीं है; बुद्ध का तो हो ही नहीं सकता। वह दांत किसी जानवर का है। लेकिन वे जो लाखों लोग सिर झुका रहे हैं, उनको दांत से थोड़े ही मतलब है, प्रचार से मतलब है। हम जीते हैं प्रचार से।
और लाओत्से कहता है, यह जो, यह जो वृत्ति है सतह पर नीति, आचरण, साधुता, सबको तौल लेने की, इसका धर्म से कोई संबंध नहीं है। यह तो सदगुणों का तलछट है। यह तो सदगुण तो कहीं दूर हैं बहुत, यह तो कचरा-कूड़ा है, जो बचा हुआ है। इसका कोई संबंध नहीं है सदगुणों से। और न केवल यह कचरा है, बल्कि ये फोड़े हैं। तो जिनको आप पूजते हैं जिस सदगुण के कारण, उस सदगुण के कारण उस आदमी को कोई आनंद नहीं मिल रहा है और आप पूजा कर रहे हैं। ये फोड़े होने का यह मतलब है, उनको दुख रहा है।
मैं ऐसे बहुत साधुओं को जानता हूं, जिनके हजारों भक्त हैं। और उन साधुओं से जब मैं मिला हूं तो अकेले में वे मुझसे कहते हैं कि अभी हमें ध्यान नहीं हुआ, कोई रास्ता बताएं। और हजारों हैं जो सोच रहे हैं, इनके चरणों में बैठ कर उनको ध्यान हो जाने वाला है।
यहां बंबई में कोई दस वर्ष पहले एक बड़े साधु के साथ मैं बोल रहा था। उन्होंने आत्मज्ञान पर बड़ी अदभुत बातें कहीं। जानते थे सभी कुछ, जिसको जानने में कोई अड़चन नहीं है। पीछे मैं बोला। और जब वे जाने लगे तो मैंने उनसे बहुत धीरे से कहा कि आपने जो भी कहा है, उसका आपको पता नहीं है। पता होता तो कोई झगड़ा ही नहीं था; लेकिन उनको भी पता तो था ही कि पता नहीं है।
चोट लग गई, नाराज दिखाई पड़े और कहा कि आपने ऐसा कैसे कह दिया? मैंने कहा कि अब आप सोचना। मैंने कह दिया, अब आप सोचना। रात भर सो नहीं सके। उनको बेचैनी रही। पर आदमी ईमानदार थे। दूसरे दिन सुबह उन्होंने मुझे बुलवाया।
यह देख कर कि मैं जा रहा हूं, दस-बीस उनके भक्त इकट्ठे हो गए। पर उन्होंने कहा, मैं तो अकेले में ही मिलना चाहता हूं। सो दरवाजे बंद कर लिए। और तब वे मुझसे बोले कि साठ साल का मैं हो गया, मुझसे कभी किसी ने यह कहा ही नहीं कि आपको पता नहीं है। सब मानते हैं कि मुझे पता है। और धीरे-धीरे मैं भी भूल गया था कि मुझे पता नहीं है। कल अचानक चौंका दिया आपने। इसलिए पहले तो क्रोध आया, फिर रात मैंने सोचा कि क्रोध का क्या प्रयोजन है, पता तो मुझे नहीं है। फिर मैंने कहा कि अगर ठीक सच में ही समझ में आ गया तो दरवाजा खोल दें और वे जो बीस-पच्चीस आदमी बाहर बैठे हैं, उनको भी भीतर बुला लें।
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