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________________ ताओ उपनिषद भाग ३ नहीं है। लोगों को अपने सदगुणों की चर्चा से फुर्सत मिले तो आपके सदगुणों की भी चर्चा करें। और जहां सब अपने में उत्सुक हैं, किसको फिक्र है कि आप में सदगुण भी हैं! तो हर आदमी को अपना ही प्रचार करना पड़ता है। प्रचार ठीक से आप करें, यही जरूरी मालूम पड़ता है-जैसे समाज में हम जीते हैं, जहां हम जीते हैं। अगर लोग नहीं मान पाते हैं तो उसका मतलब ही है कि प्रचार में कोई त्रुटि रह गई। अगर फिर भी लोग पता लगा लेते हैं तो उसका मतलब सिर्फ इतना ही है कि आपके प्रचार की जो संरचना है, वह भूल भरी है। ठीक प्रचार करने पर लोग मानेंगे ही। लोग मानते ही उसी बात को हैं, जिसको उनके मस्तिष्क पर ठोंका जाता है और प्रचार किया जाता है। हमारे सदगुणी, हमारे महात्मा, हमारे साधु, हमारे चरित्रवान, हमारे नीतिनिष्ठ व्यक्ति, हम अपने प्रचार को हटा लें, फिर कहां खड़े रह जाएंगे? बहुत अजीब है, हम प्रचार से जीते हैं। मैंने सुना, गुजरात के एक बड़े समाजसेवी, ठक्कर बापा, एक ट्रेन से यात्रा कर रहे थे। गांधीजी के अनुयायी थे, इसलिए थर्ड क्लास में चलते थे। बड़ी भीड़-भाड़ थी, बामुश्किल तो अंदर हो पाए। बंबई की तरफ आते थे। एक मोटा आदमी पूरी सीट पर कब्जा किए लेटा हुआ था। बीसों लोग खड़े हैं, स्त्रियां, बच्चे खड़े हैं। बड़ी भीड़, बड़ी गर्मी! और वह आदमी पूरी सीट रोके हुए अपना अखबार पढ़ रहा है। ठक्कर बापा ने उसे कहा कि मैं बूढ़ा आदमी हूं, अगर थोड़ी जगह दे दें। उसने कहा, चुप रह बूढ़े, फिजूल गड़बड़ मत कर। अखबार पढ़ कर वह अपने बगल वाले आदमी से कहता है कि कल बंबई में ठक्कर बापा का व्याख्यान है; सुनना है मुझे भी। और ठक्कर बापा उसके पास खड़े हैं! आदमी को मानिए कि अखबार को मानिए? अखबार बड़ी चीज है। एक जैन बहुत क्रांतिकारी विचारक व्यक्ति थे महात्मा भगवानदीन। वे मेरे एक मित्र के घर नागपुर में मेहमान थे। उन मित्र ने मुझे घटना बताई। आए थे कुछ चंदा करने। कोई एक आश्रम, वृद्ध और विधवाओं का आश्रम चलाते थे। उसके लिए चंदा करने आए थे। तो मित्र से कहा कि मैं चंदा करने आया हूं; और चंदा करने निकल गए। दिन भर मेहनत करके कोई पांच-सात रुपए लेकर लौटे। तो मित्र ने कहा, यह भी हद हो गई, पांच-सात रुपए! तो आपको मालूम नहीं चंदा कैसे किया जाए। कल हम निकलेंगे। उसके पहले अखबारों में ठीक से खबर निकाली कि महात्मा भगवानदीन कौन हैं, क्या हैं। फिर दस-पांच लोगों की भीड़-भाड़ लेकर लोगों के घर पहुंचे। और फिर एक झूठी फेहरिस्त लेकर पहुंचे, जिसमें दो-चार बड़े आदमियों के नाम थे जिनके नाम के सामने हजार रुपया, किसी के सामने पांच सौ रुपया-वे सब झूठे थे। और जिसकी दुकान पर गए, उसने चार नाम देखे, महात्मा भगवानदीन! उठ कर खड़े हुए, पैर छुए। कई दूकानें तो वे थीं, कल जिन पर वे जाकर चार आने लेकर लौट आए थे। उन्होंने एक सौ एक रुपया, किसी ने दो सौ एक रुपया दिए। कल जो आदमी आया था, वह महात्मा भगवानदीन नहीं था। आज जो आदमी आया है, बड़ा महात्मा है। और हम आदमी को थोड़े ही देते हैं, हम प्रचार को देते हैं। हम सबको लगता ही है ऐसा कि हम आदमियों से संबंधित हैं; हम प्रचार से संबंधित हैं। मैं एक विश्वविद्यालय में विद्यार्थी था। तो पहला ही वर्ष था मेरा और बुद्ध-जयंती आई। तो उस विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर ने व्याख्यान दिया और उन्होंने कहा कि मेरे मन में एक पीड़ा हमेशा बनी रहती है। जब भी बुद्ध का नाम आता है, तब मुझे ऐसा लगता है कि काश, हम उनके जमाने में होते तो उनके चरणों में बैठ कर कुछ सीखते! मैं उठ कर खड़ा हो गया और मैंने उनसे कहा कि आप इस पर फिर से सोचें। जहां तक मैं समझता हूं, आप बुद्ध के जमाने में होते तो आप आखिरी आदमी होते उनके चरणों में जाने वाले। उन्होंने कहा, क्या मतलब? तो मैंने कहा, आपको कम से कम ढाई हजार साल का प्रचार चाहिए पहले कि बुद्ध ! ढाई हजार साल का प्रचार है, तब आपको ऐसा खयाल उठ रहा है। 150
SR No.002373
Book TitleTao Upnishad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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