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ताओ उपनिषद भाग ३
तरहत है।
धोखा है। अच्छा हो कि अपनी दीप्ति को खोजने में लगे, बजाय दूसरों की आंखों से दीप्ति चुराए और धोखा पैदा करे। अच्छा हो कि अपना दीया जलाए, बजाय दूसरों के दीए के सामने अपने आईने को करके उसमें दीयों को देखे। हम देख सकते हैं। जरूरी नहीं है कि मेरे मकान की खिड़की में भी दीया जले तो प्रकाश निकले। आपके मकान में निकल रहा हो, मैं अपने मकान की खिड़की पर आईना लगा सकता हूं। और तब यह भी हो सकता है कि राहगीर मेरी खिड़की से ज्यादा प्रकाश को निकलता देखें, बजाए आपकी खिड़की के।
लेकिन आईना सिर्फ धोखा है। हम सब आईने के मकान में रहते हैं। हम अपने चारों तरफ व्यक्तित्व में आईने लगा लेते हैं। उनमें दूसरों की छाया को हम इकट्ठी करते रहते हैं।
इसलिए कोई भी आदमी अपने से श्रेष्ठतर लोगों के पास रहना पसंद नहीं करता। सभी लोग अपने से निकृष्ट लोगों के पास रहना पसंद करते हैं। अपने से नीचे आदमी को खोजना हमेशा अच्छा लगता है। क्योंकि वह जब पास होता है, तो हमारे आईने में अकड़ आ जाती है। श्रेष्ठतर व्यक्ति के पास हम खड़े हों तो हम छोटे पड़ जाते हैं।
जिस व्यक्ति ने यह तय कर लिया कि अब मैं अपने से श्रेष्ठतर व्यक्ति के पास रहूंगा, उसको धर्म की भाषा में शिष्य कहते हैं-डिसाइपल। लेकिन हम गुरुओं से डरते हैं। गुरु के पास होना भी खतरनाक है। इसलिए अगर कोई गुरु हमें समझाए कि गुरु की कोई भी जरूरत नहीं, हमारा चित्त बड़ा प्रसन्न होता है कि बिलकुल ठीक। अपने से श्रेष्ठतर के पास होने में हम छोटे मालूम पड़ते हैं। हमारा दीया बुझने लगता है। अपने से निकृष्ट के पास हम श्रेष्ठ मालूम पड़ते हैं।
कोई पति अपने से लंबी पत्नी से शादी करना पसंद नहीं करेगा। कोई पसंद नहीं करेगा। यह हो सकता है, इसी कारण से स्त्रियों की लंबाई लाखों वर्षों में कम हो गई। क्योंकि कोई पुरुष लंबी स्त्री से शादी करना पसंद नहीं करेगा। यह अयोग्यता हो जाएगी। पुरुष अपने से ज्यादा बुद्धिमान स्त्री से भी शादी करना पसंद नहीं करते, अपने से ज्यादा पढ़ी-लिखी स्त्री से भी शादी करना पसंद नहीं करते। क्यों? वह जो पुरुष का अहंकार है, दिन भर बाजार में कुटा-पिटा घर लौटता है, वहां भी पिटाई उसकी हो जाए, असह्य हो जाएगा जीवन। इतनी सुविधा बनाने की उसे हम आज्ञा दे देते हैं, इसीलिए कि दिन भर न मालूम कहां-कहां पिटता है, कितना कांपिटीशन है, कितनी स्पर्धा है, जगह-जगह अपने से पहाड़ मिल जाते हैं; वहां से लौटता है, घर आकर पत्नी को देख कर बड़ी तृप्ति होती है।
यह जो आदमी का मन है, यह सदा अपने से छोटे लोगों को अपने पास खोजने में लगा रहता है। उधार जिनकी ज्योति है, उनके लिए यही सूत्र है।
जिन्हें अपनी ज्योति खोजनी है, उन्हें निरंतर शिखर की तलाश करनी चाहिए। जिन्हें अपनी ज्योति खोजनी है, उन्हें अपने सब दर्पण तोड़ देने चाहिए। उन्हें नग्न, वे जैसे हैं वैसे ही, अपने को स्वीकार कर लेना चाहिए। सारे वस्त्र हटा कर अपनी नग्नता को जानना उसकी तथ्यता में, फैक्टिसिटी में, जीवन-क्रांति की तरफ पहला कदम है।
'जो स्वयं अपना औचित्य बताता है, वह विख्यात नहीं है।'
जो स्वयं कोशिश करता है समझाने की कि मैं विख्यात हूं, जो स्वयं कोशिश करता है समझाने की कि मैं सही हूं, उसे खुद भी शक है। असल में, हमारे अपने ही शक हमें परेशान करते हैं। दूसरे के शकों से क्या प्रयोजन है? एक आदमी आकर आपको कह जाता है कि आप चरित्रहीन हैं; अगर आपको खुद भी शक है तो इस आदमी की बात घाव पर पड़ जाएगी। अगर आपको खुद शक नहीं है तो आप इस आदमी पर हंस सकते हैं।
बंगाली के प्रसिद्ध कथाकार हुए शरतचंद्र। एक सदगृहिणी ने जो शरतचंद्र के उपन्यासों से बड़ी प्रभावित थी, एक बहुत कुलीन परिवार की महिला, उसने एक दिन शरतचंद्र को जाकर निमंत्रण दे आई भोजन के लिए। लेकिन शरतचंद्र ने एक किताब लिखी थी: चरित्रहीन। और ऐसे भी शरतचंद्र का चरित्र ऐसा चरित्र नहीं था कि साधारण
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