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सदगुण के तलछट ऑर कोई
समय दूसरे का उकसावा चाहिए। हम अपने से नहीं जीते, कोई हमें जिलाने को चाहिए; कोई हमें धक्का देता रहे, कोई हमें सहारा देता रहे, कोई हमें कहता रहे। आप ऐसा मत सोचना कि यह किसी और के संबंध में बात हो रही है। यह आपके ही संबंध में बात हो रही है। जब कोई आपसे कह देता है कि कितने सुंदर हैं, तो भीतर कोई चीज भभक उठती है। जब कोई आपकी तरफ से मुंह फेर लेता है और उसकी आंखें कह जाती हैं कि देखने योग्य कुछ भी नहीं है, तब भीतर कोई ज्योति बुझ जाती है। यह ज्योति आपकी नहीं है, इतना पक्का आप समझ लेना। यह कोई और जलाता है, कोई और बुझाता है। आप लोगों के हाथ के खिलौने हैं। इसको अगर हम धर्म की भाषा में कहें तो कहना होगा, आपके पास अपनी कोई आत्मा नहीं है। आप उधार हैं। आप दूसरों की पूंजी से चल रहे हैं।
इसलिए एक मजे की घटना घटती है, राजनेता जब तक ताकत में होते हैं, आमतौर से मरते नहीं। ऐसा नहीं कि मरते ही नहीं हैं, मरना तो पड़ता ही है, लेकिन आमतौर से मरते नहीं। और राजनैतिक नेता आमतौर से जब तक ताकत में होते हैं, बड़े स्वस्थ होते हैं। लेकिन कोई धक्का लगे उनकी प्रतिष्ठा को, और वे बीमार होना शुरू हो जाते हैं। और उनकी प्रतिष्ठा धूमिल हो जाए, और उनकी मृत्यु करीब आ जाती है। वह जो चमक और दीप्ति दिखाई पड़ती है, वह उधार है। इसलिए जब भी कोई राजनेता अपने जीवन में जल्दी शिखर छू लेता है, तो मुश्किल में पड़ जाता है। क्योंकि उसके बाद उतरने के सिवाय कोई उपाय नहीं रहता। और हर उतार उसके जीवन को क्षीण कर जाता है। फिर जीने का कोई उपाय ही नहीं रह जाता।
मनसविद कहते हैं कि लोग अपने कामों से निवृत्त होकर, रिटायर होकर दस साल पहले मर जाते हैं; कम से कम दस साल उनकी उम्र कम हो जाती है-भला वे कुछ भी रहे हों, एक स्कूल में हेड मास्टर ही क्यों न रहे हों। हेड मास्टर ही सही, लेकिन दो-चार सौ बच्चों में तो अकड़ होती ही है। बच्चों के लिए तो हेड मास्टर करीब-करीब परमात्मा ही होता है। और अगर बच्चों से पूछे भी कि परमात्मा कैसा है? तो उनको जो तस्वीर खयाल में आएगी, वह हेड मास्टर की। और कोई आ नहीं सकती। हेड मास्टर रिटायर हो जाता है, अब कोई बच्चे रास्ते पर नमस्कार नहीं करते। किन्हीं मास्टरों को भी धमका नहीं सकता है, चपरासियों पर रोब नहीं गांठ सकता है। आदत! जीवन-ऊर्जा एकदम फीकी पड़ जाती है। लगता है, बेकार है, अब होने का कोई अर्थ नहीं है।
औरंगजेब ने अपने बाप को बंद कर दिया था जेलखाने में। तो शाहजहां ने खबर भिजवाई कि मेरी आदतों को देखते हुए तू इतना तो कम से कम कर कि तीस बच्चे मुझे दे दे तो मैं उनको पढ़ाने का काम करूं। शाहजहां ने खबर भिजवाई कि मुझे तीस बच्चे दे दे तो मैं एक छोटा मदरसा चलाऊं। - औरंगजेब ने अपने संस्मरणों में लिखवाया है कि शाहजहां को सब कुछ होने का, सॉवरिन होने का ऐसा शौक था कि जेलखाने में भी उसको अकेले होने में चैन न पड़ी। तीस बच्चे भिजवाने पड़े। और तब तीस बच्चों के बीच में कुर्सी पर बैठ कर वह फिर दरबार में बैठ गया। तीस बच्चों को पढ़ाने लगा, सिखाने लगा, डांटने-डपटने लगा। फिर सम्राट हो गया।
छोटी क्लास में एक शिक्षक भी सम्राट ही है। क्लासें हैं; छोटी हैं, बड़ी हैं, कोई बहुत फर्क तो पड़ता नहीं। आप चालीस करोड़ की क्लास में बैठे हैं, कि चालीस की क्लास में बैठते हैं, क्या फर्क पड़ता है? जितने हैं, उनके ऊपर आप हैं, बस काफी है। दीवार के बाहर बड़ा जगत है, उससे क्या लेना-देना है! उससे क्या प्रयोजन है!
शाहजहां बीमार था, जेलखाने में स्वस्थ हो गया। प्रसन्न हो गया, काम में उसे मजा आने लगा। ये तीस बच्चों की आंखें फिर दीए में ज्योति डालने लगीं। ज्योति अपनी बिलकुल नहीं है।
यह जो उधार जीवन है, यह अधार्मिक जीवन है। और इस उधार जीवन का सूत्र क्या है? जो अपने को दिखाता फिरता है, वह समझ ले ठीक से कि उसमें कोई दीप्ति नहीं है। और यह भी समझ ले कि उधार दीप्ति सिर्फ
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