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सदगुण के तलछट और फोड़े
दो घंटा, रात, दिन-चौबीस घंटे-वहां से बाहर जाने का कोई उपाय नहीं है। अगर आंख बंद करके सोओ भी तो पता है कि दो लोग वहां मौजूद हैं; वे देख रहे होंगे। नर्क में और कोई तकलीफ नहीं है, उन तीनों को एक ही कमरे में रहना पड़ता है। और तीन दिन के भीतर उसको लगता है कि इससे वह जो पुराना नर्क था, आग में जलाए जाने वाला, वहीं ज्यादा बेहतर था। यह नया इनवेंशन तो खतरनाक मालूम होता है। कम से कम थोड़ा एक्साइटमेंट तो होता, आग में जलाए जाते, फेंके जाते, कुछ होता! यहां कुछ होता ही नहीं है। बस ये तीनों बैठे हुए हैं एक कमरे में। पूछताछ भी समाप्त हो गई। जैसे कि ट्रेन में मिलते हैं लोग, समाप्त हो जाती है; वेटिंग रूम में मिलते हैं, कहां जा रहे हैं, क्या है, बात खतम हो जाती है; फिर लोग अपने टाइम-टेबल को दुबारा पढ़ने लगते हैं, तिबारा पढ़ने लगते हैं। सब खतम हो गई बातचीत, हो गई जानकारी, पहचान हो गई, अब कोई उपाय नहीं रहा। तीन दिन में उसे पता चलता है कि यह तो महा नर्क है, और किसी बहुत ही शैतान की ईजाद है। पुराना शैतान इतना आविष्कारक नहीं था।
वे दो प्रेमी जब एक ही कमरे में बंद कर दिए जाते हैं, तीन दिन में प्रेम नर्क हो जाता है। हो जाने वाला है। उसका कारण प्रेम का कोई कसूर नहीं है। उसका कारण पंजों के बल खड़े होने की चेष्टा है। इस जगत में तब तक विवाह सफल नहीं हो सकता, जब तक लोग दिखाने की कोशिश नहीं छोड़ते। तब तक विवाह असफलता रहेगी। जब तक लोग दिखाने की कोशिश नहीं छोड़ते, तब तक इस दुनिया में परिवार स्वर्ग नहीं हो सकता, तब तक मित्रता में जहर रहेगा, तब तक सब संबंध रोग पैदा करेंगे। क्योंकि जो भी हम दिखाने की कोशिश करते हैं, वह ज्यादा देर नहीं चल सकता। मैं जो हूं, वह मैं सदा हो सकता हूं। जो मैं दिखाने की कोशिश करता हूं, वह मैं कभी-कभी हो सकता हूं। वह मैं कभी-कभी हो सकता हूं। और वह होना कष्टपूर्ण होगा। उस होने में मुझे चेष्टा करनी पड़ेगी। चेष्टा श्रम लाएगी। और जिसके लिए मुझे चेष्टा करनी पड़ेगी, उसके प्रति मेरा सदभाव नष्ट हो जाएगा।
आदमी जैसा है, वैसे की स्वीकृति ताओ है। और उस स्वीकृति से भी जीवन में गति आती है। यह मत सोचना कि उससे गति बंद हो जाती है। उससे भी गति आती है। लेकिन गति में कोई तनाव नहीं होता। तब आदमी जैसा है, उसमें से ही बहाव निकलता है। अभी हमें खींचना पड़ता है अपने को। इस खींचने के लिए दो तरकीबें काम में लाई जाती हैं-या तो पीछे से हमें धक्का दिया जाए, या आगे से हमें रस्सियां बांध कर खींचा जाए। हमारी सब गतियां ऐसी हैं। या तो पीछे से कोई हमें धक्का दे रहा हो।
मां-बाप बेटे को धक्का देते रहते हैं कि पढ़ो-लिखो, पढ़ोगे-लिखोगे तो बनोगे नवाब। नवाब की क्या हालत है, यह किसी को प्रयोजन ही नहीं है। वे अभी भी कहे चले जा रहे हैं कि पढ़ोगे-लिखोगे तो बनोगे नवाब। महत्वाकांक्षा! कुछ बन पाओगे-धक्का पीछे से दिया जा रहा है। और जब आदमी खुद योग्य हो गया अपने को धक्का देने में, तो पीछे से खुद को तो धक्का नहीं दिया जा सकता, दूसरे दे सकते हैं, खुद को धक्का देना हो तो महत्वाकांक्षा भविष्य में रखनी पड़ती है। कि अगर आज इतनी मेहनत करता हूं तो कल मुझे यह मिलेगा; एक तारा आकाश में, वहां पहुंच जाऊंगा कभी, अगर मेहनत की तो। तो आदमी फिर दौड़ता है। आगे का तारा खींचता है। दो ही उपाय हैं-या तो पीछे से कोई धक्का दे, या आगे के लिए हम खुद दौड़ें।
लेकिन ये दोनों ही कृत्रिम व्यवस्थाएं हैं। एक और गति है। न कोई पीछे से धक्का दे रहा है, न कोई आगे से खींच रहा है। बल्कि मेरे प्राणों की जो ऊर्जा है, वही बह रही है। मेरे प्राणों की जो ऊर्जा है, वही बह रही है।
हम कहते हैं कि नदी सागर की तरफ बह रही है। यह ठीक नहीं है कहना, नदी के साथ न्याय नहीं है। हमें लगता है, क्योंकि हम नदी की सब अवस्थाएं देखते हैं। लेकिन नदी को सागर का क्या पता है? नदी सिर्फ बह रही है। बहने का नाम नदी है। बहते-बहते सागर में पहुंच जाती है, यह दूसरी बात है। बहते-बहते सागर मिल जाता है, यह दूसरी बात है। लेकिन नदी सागर के लिए बह नहीं रही है।
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