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सदगुण के तलछट और फोड़े
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'जो अपने कदमों को तानता है, वह ठीक से नहीं चलता।'
जीवन में हमें चारों तरफ ऐसी घटनाएं रोज अनुभव में आती हैं, हम खयाल में लें, न लें। हम सभी बोलते हैं। सौ में निन्यानबे लोग अच्छी तरह बोलते हैं, बातचीत में कुशल होते हैं। उन्हें यहां मंच पर लाकर खड़ा कर दिया , और बोलना मुश्किल हो जाता है। क्या हो गया? उनकी जबान में कोई खराबी नहीं, उनका कंठ ठीक है, ठीक है, रोज बात करते हैं— बात ही करते हैं दिन भर और क्या करते हैं! अचानक इस माइक के सामने खड़े होकर उनका कंठ अवरुद्ध क्यों हो जाता है? हाथ-पैर कंपने क्यों लगते हैं? ये बोलने में इतने कुशल ! इन्हें चुप होना मुश्किल होता है, मौन कठिन मालूम पड़ता है! अचानक इनका मौन क्यों सध जाता है? मंच पर खड़े होकर इनसे बोला क्यों नहीं जाता ? बोलना प्रयास है अब । अब यह पंजे के बल खड़ा होना हो गया। अब प्रयास है बोलना । जो रोज दिन भर बोलते थे, वह अप्रयास था। उसमें कोई चेष्टा न थी, उसमें खयाल ही नहीं था कि हम बोल रहे हैं। बोलना हो रहा था। अब खयाल है कि हम बोल रहे हैं। और खयाल क्यों है? खयाल इसलिए है कि कहीं कुछ ऐसा न बोल जाएं कि लोगों के सामने प्रतिष्ठा गिर जाए; कुछ ऐसा बोलें कि प्रतिष्ठा बढ़ जाए। लोगों पर दृष्टि है।
ऐसा समझें कि ये सब लोग कोई भी नहीं हैं यहां, माइक पर आप अकेले खड़े हैं; फिर आप मजे से बोल सकते हैं, बड़े आनंद से बोल सकते हैं। अपनी ही आवाज सुनना बहुत आनंदपूर्ण होता है। लेकिन लोग बैठे हैं, तब अड़चन होती है। आप तनाव से भर गए ।
मनसविद कहते हैं—आपको अनुभव हुआ होगा — गोली गटकनी मुश्किल होती है दवा की; खाना आप रोज गटक जाते हैं। कभी खयाल भी नहीं आता कि खाने का कोई कौर अटक गया हो और आपको चेष्टा करके लीलना पड़ा हो। लेकिन दवा की गोली जीभ पर रखें - पानी अंदर चला जाता है, गोली जीभ पर रह जाती है। इस गोली में क्या खूबी है? जब आप खाना ले जा रहे हैं, तब कोई चेष्टा नहीं है। गोली को गटकना है। यह प्रयास है। वह प्रयास ही अटकाव बन जाता है।
जीवन के सब तलों पर विपरीत का नियम काम करता रहता है। जितनी आप चेष्टा करेंगे, उतने ही आप विफल हो जाएंगे। सफलता का एक ही सूत्र है : चेष्टा ही न करें। इसका यह मतलब नहीं है कि कुछ करें ही नहीं । यह मतलब नहीं है। इसका मतलब है, ऐसे करें, जैसे करना आपसे निकलता हो । उस पर कोई बोझ न हो, उस पर कोई भार न हो, उस पर कोई जबरदस्ती न हो, अपने को खींचना न पड़ता हो । नदी की तरह बहना होता हो, कली की तरह खिलना होता हो, पक्षी की तरह गीत होता हो !
'जो अपने कदमों को तानता है, वह ठीक से नहीं चलता; जो अपने को दिखाता फिरता है, वह वस्तुतः दीप्तिवान नहीं है।'
दूसरे मुझे देखें, दूसरे मुझे जानें, दूसरे मुझे पहचानें – आखिर दूसरों के मन में मेरी अच्छी धारणा बने, इसकी इतनी कामना क्यों होती है ? इसका इतना मन में रस क्यों होता है ?
अपने पर कोई भरोसा मुझे नहीं है, इसलिए। अपनी कोई प्रतिमा भी मेरे पास नहीं है, इसलिए। अपना कोई तादात्म्य भी नहीं है, कोई आइडेंटिटी नहीं है। मैं कौन हूं, इसका मुझे कुछ पता नहीं है। दूसरे मुझे क्या मानते हैं, वही मुझे पता है। उसका ही जोड़ मेरी आत्मा है । अ कुछ कहता है, ब कुछ कहता है, स कुछ कहता है। मेरे बाबत लोग जो कहते हैं, उनको ही जोड़ कर मैं अपनी आत्मा बना लेता हूं। लोग कहते हैं मैं अच्छा हूं, तो मुझे लगता है मैं अच्छा हूं। और लोग कहने लगें मैं बुरा हूं, तो मेरे भवन की आधारशिलाएं डगमगा जाती हैं।
इसलिए जब कोई आदमी आपको बुरा कहता है, तो आपको जो क्रोध आता है, वह इसलिए नहीं आता कि उसने गलत कहा। अगर गलत कहा है, तब तो क्रोध आने की कोई जरूरत ही नहीं है । गलती उसकी है, आप क्यों