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________________ ताओ उपनिषद भाग ३ 140 पश्चिम में स्त्रियों ने बड़ी एड़ी के जूते ईजाद किए हैं - वह सिर्फ पुरुष के साथ प्रतिस्पर्धा में । पुरुष थोड़ा लंबा है। उन लंबी एड़ी के जूतों पर चलना सुखद नहीं है; क्योंकि प्रकृति के बिलकुल प्रतिकूल है। असल में, लंबी एड़ी के जूते पहनने का मतलब है कि पंजे के बल आप खड़े होना चाह रहे हैं, सहारा चाहिए, तो लंबी एड़ी का सहारा मिल जाता है। स्त्री को भी पुरुष जैसा लंबा होने की तृष्णा है; स्वीकृति नहीं है। दूसरे से कुछ तुलना है, और दूसरे के मुकाबले होने का कोई भाव है । फिर यह एड़ी की ऊंचाई तक ही बात नहीं टिकेगी, यह तो फिर पूरे जीवन फैल जाएगी। यह तो दृष्टि और आधार हुआ। जिस दिन पश्चिम में आज से कोई तीन सौ साल पहले स्त्रियों ने लंबी एड़ी के जूते खोजे, उसी दिन कहा जा सकता था कि आज नहीं कल, जो भी स्त्रियां आज पश्चिम में कर रही हैं, वह करेंगी। जो भी आज वे कर रही हैं, वह उस एड़ी के जूते से ही तय हो गया। एक भाव है भीतर । र लेकिन लंबी एड़ी के जूते पर खड़े होने में सुखद नहीं हो ता। खड़ा होना भी एक दुख हो जाएगा। चलना एक कष्ट हो जाएगा। चलना एक आनंद हो सकता है। चलना आनंदपूर्ण है। लेकिन जिनकी भी आदत पंजों पर खड़े होने की पड़ गई है, वे फिर चल नहीं सकते। सारे शरीर को घसीटना पड़ेगा। और यह जो लाओत्से कहता है कि पंजों के बल जो खड़ा है, वह दृढ़ता से खड़ा नहीं हो सकता। वह कंपित भी रहेगा। क्योंकि जो भी सहारे उसने लिए हैं, सब झूठे हैं और कृत्रिम हैं। वह अपना पैर नहीं है लंबा, वह जूते की एड़ी है। वह जिन सहारों पर भी लंबा गया है, वे सब झूठे हैं। एक राजनीतिज्ञ अपनी कुर्सी पर बड़ा हो गया है; वह कुर्सी उतनी ही झूठी है। इसलिए राजनीतिज्ञ अपनी कुर्सी पर बैठ कर कभी शांति से बैठ नहीं सकता। कुर्सी पर होना और शांति से होना बड़ा मुश्किल है। क्योंकि वह कुर्सी जिस चीज के लिए काम में लाई जा रही है — दूसरों से ऊपर दिखाई पड़ने के—यह जो चेष्टा है, यह चेष्टा ही कुर्सी पर शांति से नहीं बैठने दे सकती। इसलिए सम्राटों की रातें अगर कष्टपूर्ण हैं, और अगर सम्राटों ने कभी-कभी भिखारियों से भी ईर्ष्या की है अपने मन में, तो उसका कारण है। अगर एक व्यक्ति ने धन का ढेर लगा लिया है और उस पर ऊपर होने की कोशिश में लगा तो यह ढेर वह कितना ही सोचता हो कि वह ढेर के ऊपर खड़ा है, वह समझे या न समझे, उसे पता नहीं, असलियत में यह ढेर उसके सिर पर बैठ जाएगा। वह दब जाएगा। वह इस ढेर से ऊपर नहीं उठने वाला है। लाओत्से कहता है, दृढ़ता से खड़ा होना हो तो ऐसे खड़ा होना चाहिए कि खड़े होने में कोई तनाव न हो। पंजों के बल खड़ा नहीं हुआ जा सकता। और जब आप पंजों के बल खड़े होते हैं, तभी पता चलता है कि आप खड़े हैं। जब आप पूरे पैर के बल खड़े होते हैं, तब आपको पता भी नहीं चलता कि आप खड़े हैं। लेकिन हमारी आदत संतुलन की नहीं है। इसलिए लाओत्से की परंपरा में एक प्रक्रिया है। लाओत्से अपने शिष्यों को कहता था कि खड़े हो जाओ, फिर आंख बंद कर लो, फिर ध्यान करो कि तुम पैर के किसी हिस्से पर जोर तो नहीं दे रहे हो। पूरे दोनों पैरों पर संतुलन बराबर बांट दो। पर हमें तो पता ही नहीं चलेगा। तो पता चलने के लिए लाओत्से कहता था कि खड़े हो जाओ; फिर एक पैर पर जोर दो; बाएं पैर पर पूरा जोर दे दो; बाएं पर ही खड़े हो, भीतर शिफ्ट कर दो, भीतर पूरा बल बाएं पर शिफ्ट कर दो। तब तुम्हें पता चलेगा कि दायां नपुंसक हो गया पैर, उसमें प्राण न रहे। फिर दाएं पर पूरा का पूरा जोर हटा दो। तब तुम पाओगे कि बायां रिक्त और खाली हो गया। तब दोनों पर बराबर जोर बांटो। और लाओत्से कहता था, जिस दिन तुम्हारा संतुलन बिलकुल बराबर हो जाएगा, तुम्हें बाएं और दाएं पैर का पता नहीं चलेगा – कौन सा पैर बायां है और कौन सा पैर दायां है। और जिस दिन संतुलन बराबर हो जाएगा, उस दिन तुम कितनी ही देर खड़े रहो, तुम थकोगे नहीं ।
SR No.002373
Book TitleTao Upnishad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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