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न नया, न पुराना, सत्य सनातन है
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जाएगा। लाओत्से क्या कहता है, उसका प्रयोग करें। जिस दिन प्रयोग पूरा होगा, उस दिन आप पाएंगे कि लाओत्से के सही होने में कृष्ण, महावीर, बुद्ध सब सही हो गए। एक सही हो जाए अनुभव से, सब सही हो जाते हैं।
लेकिन हम होशियार लोग हैं। अनुभव की झंझट में नहीं पड़ते। ऊपर ही हेर-फेर कर लेते हैं, लेबल बदल देते हैं - हटाओ यह लेबल, अब दूसरा लगा लो । भीतर का कंटेंट वही का वही बना रहता है। उसमें कभी कोई फर्क नहीं होते। कभी लाओत्से का लेबल जंचा तो वह लगा लिया; कभी नहीं जंचा तो हटा दिया। बड़ी जल्दी करते हैं। एक मित्र मेरे पास आए। दो-चार दिन से ध्यान शुरू किया था। जिस दिन लाओत्से का सूत्र आया कि ध्यान की भी कोई जरूरत नहीं है क्योंकि ध्यान भी क्रिया है, वे मेरे पास आए और उन्होंने कहा कि बड़ा अच्छा हुआ, हम दो-चार दिन से ही शुरू किए थे, छोड़ दिया ।
एक मित्र संन्यास लेने आने वाले थे। एक दिन पहले कह कर गए थे कि कल सुबह आकर मैं संन्यास में प्रवेश करता हूं। लेकिन उसी दिन शाम को लाओत्से का सूत्र था, जिसमें मैंने कहा कि लाओत्से ने कभी संन्यास नहीं लिया। वे फिर दूसरे दिन आए ही नहीं। वे समझ गए, बात ठीक हो गई।
आदमी बहुत चालाक है। जिन मित्र ने ध्यान छोड़ दिया चार दिन करके, मैंने उनसे पूछा, लाओत्से को समझ कर और क्या छोड़ दिया? उन्होंने कहा, और तो कुछ नहीं, ध्यान से ही शुरू करता हूं।
ध्यान को अभी पकड़ा भी नहीं था, पाया भी नहीं था; छोड़ना तो बहुत मुश्किल है। जो तुम्हारे पास हो, वही छोड़ा जा सकता है। मैंने उनसे पूछा, ध्यान तुम्हें मिल गया? उन्होंने कहा, अभी तीन-चार दिन से ही शुरू किया है। जो है ही नहीं, उसे छोड़ दिया । छोड़ना चाहते होंगे, लाओत्से बहाना बन गया। हम बड़े होशियार लोग हैं। संन्यास लेने में डर लग रहा होगा, लाओत्से ने हिम्मत दे दी कि ठीक, संन्यास की क्या जरूरत है! अपने डर को लाओत्से के ज्ञान से जोड़ लिया। यह ज्ञान नहीं है। यह डर ही है, भय ही है। इस सब बेईमानी को ध्यान में रखना जरूरी है।
तो मैं कहता हूं कि छोड़ दें कृष्ण को, बुद्ध को, महावीर को; जब लाओत्से को समझ रहे हैं तो लाओत्से को समझ लें। और अगर लाओत्से ठीक लगता हो तो समग्रता से उसके प्रयोग में उतर जाएं। एक दिन आप पाएंगे, बुद्ध छूटे नहीं, कृष्ण छूटे नहीं, सब पा लिए । कृष्ण ठीक लगते हों, कृष्ण को चल पड़ें। लेकिन चलें।
अक्सर हम ऐसे लोग हैं, रास्ते के किनारे बैठे हैं और वहीं बैठ कर बदलते रहते हैं— कौन अच्छा लगता है, कौन बुरा लगता है। चलते नहीं हैं। और हमारी बदलाहट भी हम तभी करते हैं, जब हमें ऐसा डर लगता है कि अब कोई हमें चला ही देगा। उस वक्त हम बदल लेते हैं कि अब दूसरे को पकड़ लेना ठीक है, जो अभी आश्वासन देता हो कि बैठे रहो।
आदमी आत्मवंचक है। और इस जगत में हम दूसरे को कोई धोखा नहीं दे पाते, अपने को जीवन भर देते हैं, जन्मों-जन्मों देते हैं। और हम इतने कुशल हैं कि अपने मतलब का अर्थ निकाल लेते हैं।
मैंने सुना है कि एक आदमी शराब पीता था। कुरान का बड़ा भक्त था । उससे किसी फकीर ने 'पूछा कि तुम कुरान के इतने भक्त हो और शराब पीते हो ? उस आदमी ने कुरान खोली और कहा कि देखो, कुरान में क्या लिखा है ! कुरान में लिखा है, शराब पीने से प्रारंभ करो और तुम्हारा अंत नरक में होगा । उसने कहा, यह वाक्य देखो ! उस फकीर ने कहा, यह वाक्य दिखाई पड़ रहा है, लेकिन तुम्हारे खिलाफ है। उसने कहा, लेकिन मैं अभी आधे वाक्य तक ही पहुंचा हूं। शराब पीना शुरू करो, यह कुरान का आदेश है। और मेरा अभी पूरा वाक्य मानने का सामर्थ्य नहीं है। लेकिन जितना बने, उतना तो मानना ही चाहिए। कोशिश करते-करते दूसरे आधे हिस्से तक भी कभी, आप लोगों की कृपा रही, पहुंच जाऊंगा।
हम सब बहुत होशियार हैं। हम चुन लेते हैं, क्या हमारे मतलब का है। और तब हम धोखा खा जाते हैं।