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ताओ उपनिषद भाग३
इस आखिरी बात को समझ लें। असल में, सब द्वंद्व, जैसा मैंने कहा, सुख और दुख का; जैसा मैंने कहा, शांति और अशांति का, स्वतंत्रता और परतंत्रता का; वैसे ही इस द्वंद्व को भी समझ लें, नए और पुराने का। सत्य न तो नया है और न पुराना। क्योंकि नई चीज वही होती है, जो कभी पुरानी हो सके। और पुराने का मतलब ही यह होता है कि कभी नया रहा होगा। आज जो नया है, कल पुराना हो जाएगा। आज जो पुराना है, कल नया था। सत्य न तो नया है और न पुराना। क्योंकि सत्य न तो पुराना हो सकता है और न नया हो सकता है। इसलिए सत्य को हम कहते हैं सनातन; उसको हम कहते हैं शाश्वत; उसको हम कहते हैं, जो सदा है।
तो सत्य के संबंध में कोई मौलिक नहीं हो सकता। लेकिन सत्य के संबंध में कोई प्राचीन भी नहीं हो सकता। सत्य का अनुभव समय के बाहर है। नया और पुराना समय के भीतर घटते हैं। सत्य कोई कपड़े जैसा नहीं है; कल नया था, आज पुराना हो गया। सत्य आपकी आत्मा है।
कभी आपने खयाल किया कि आपकी आत्मा कब पुरानी हो जाती है? कभी आंख बंद करके सोचा कि आपकी आत्मा की उम्र कितनी है? कितनी पुरानी, कितनी नई? एकदम भीतर जाकर खाली हो जाएंगे। शरीर की उम्र मालूम होती है। शरीर में नया-पुराना मालूम होता है। भीतर तो कुछ नया नहीं है, कोई पुराना नहीं है। भीतर तो कुछ . है, बस है-न नया, न पुराना। या कहें कि रोज नया और रोज पुराना।
सत्य का अनुभव न तो नया है, न पुराना। और ध्यान रखना, अनुभव की बात कह रहा हूं। शब्द तो पुराने पड़ जाते हैं; शब्द नए होते हैं। कृष्ण के शब्द पुराने पड़ गए। महावीर के शब्द पुराने पड़ गए। जिस दिन महावीर ने कहे थे, उस दिन नए थे। उस दिन वेद के शब्द पुराने थे। जिस दिन बुद्ध बोले, उस दिन शब्द नए थे, आज तो पुराने पड़ गए। जिस दिन बुद्ध बोले, वेद के शब्द पुराने थे, बुद्ध के नए थे। शब्द पुराने और नए हो जाते हैं, सत्य तो पुराना और नया नहीं होता। और इसीलिए उपद्रव पैदा होता है। जिनके पास शब्दों की भीड़ होती है, उनके पास सब पुराना होता है। और जब किसी का सत्य का अनुभव प्रकट होता है तो वह बिलकुल नया होता है। और इस कारण संघर्ष हो जाता है।
इस जगत में धार्मिक आदमी का संघर्ष अधार्मिक आदमी से नहीं है। इस जगत में वास्तविक संघर्ष धार्मिक आदमी का धार्मिक पंडित-पुरोहित से है। अधार्मिक से कोई झगड़ा नहीं है। अधार्मिक तो कहता है, हम बाहर हैं, इसमें हम लेन-देन में नहीं हैं। धर्म के दो वर्ग हैं। एक, जिनके पास शब्दों की श्रृंखला है, बासे शब्दों का संग्रह है। और एक, जिनके पास अनुभव की ताजी किरण है। इनके बीच, इनके बीच सारा संघर्ष है।
अगर आपको समझना हो लाओत्से को तो कृष्ण को, महावीर को, बुद्ध को विदा दे दें। विदा दे देने का मतलब कोई दुश्मन हो जाना नहीं है। विदा दे देने का मतलब है, फिलहाल उनको कहें कि भीतर शोरगुल न मचाएं, उनको अलग करें। आप सीधे लाओत्से को समझें। और अगर आपको कृष्ण को समझना हो किसी दिन तो लाओत्से को विदा दे दें। उसे हट जाने दें, उसे बीच में मत आने दें। क्योंकि वे बड़े अनूठे लोग हैं। उनके सबके शब्द अपने, अनूठे हैं, निज हैं। उनकी पहुंच, उनकी यात्रा का पथ, उनकी आंखें बड़ी भिन्न-भिन्न हैं। उनका अनुभव एक है; लेकिन अनुभव तो आपको उस दिन समझ में आएगा, जब आपको अनुभव होगा, उसके पहले नहीं। उससे पहले एक के शब्द को दूसरे के बीच में मत आने दें।
नहीं तो दो उपाय हैं। दो उपाय हैं, एक तो उपाय यह है कि जब आप लाओत्से को सुनें, तो आपको लगे कि वेद गलत, कृष्ण गलत, बुद्ध गलत। पकड़ो लाओत्से को, छोड़ो इनको। एक तो उपाय यह है। हिम्मतवर कोई आदमी हो, साहसी हो, एडवेंचरस हो, यह करेगा। यह गलत है। इतनी जल्दी नहीं। समझें। और लाओत्से क्या कहता है, उसको प्रयोग करें। कृष्ण को गलत कहने से प्रयोग नहीं होगा। महावीर को छोड़ देने से प्रयोग नहीं हो