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ताओ उपविषद भाग ३
लाओत्से ने अच्छी बातें नहीं कही हैं; बड़ी खतरनाक बातें कही हैं। अच्छी बातें उन्हें कहते हैं, जिनसे सांत्वना मिले। खतरनाक बातें उन्हें कहते हैं, जिनसे आपको मिटना पड़े, मरना पड़े, टूटना पड़े, और नया होना पड़े। लाओत्से ने अच्छी बातें नहीं कही हैं; बहुत खतरनाक, बहुत डेंजरस बातें कही हैं। लाओत्से ने आपको सुलाने के लिए कोई लोरी नहीं गाई है। लाओत्से ने आपको जगाने की चेष्टा की है। और जगाने की चेष्टा हमेशा दुखद होती है। लेकिन आप कहते हैं, लाओत्से ने अच्छी बातें कही हैं; यह आप अपने को समझा रहे हैं। जिन बातों को आप अच्छा समझते होंगे, उनको आपने लाओत्से में सुन लिया होगा। आगे पता चलता है।
परंतु शैली और शब्दों के अंतर के अलावा ऐसी काँन सी नई बात लाओत्से ने कही है, जो वेदों और उपनिषदों में ही क्यों, गीता में भी न कही गई हो?
जानकार हैं बड़े। वेद भी जानते हैं, गीता भी जानते हैं, उपनिषद भी जानते हैं। इतना जान कर यहां कैसे आ गए? इतना सब जान लेने के बाद कुछ जानने को बचता नहीं है। कुछ अर्थ नहीं है अब और जानने का आपके लिए।
शैली और शब्दों का भेद उन्हें दिखाई पड़ रहा है। बहुत गहरे भेद हैं! और बड़ा भेद तो यही है कि लाओत्से समस्त ज्ञान के विपरीत है, वह चाहे वेद का ज्ञान हो, चाहे गीता का, चाहे उपनिषद का। समस्त पांडित्य के विपरीत है। आपके विपरीत है। आप जो गीता, उपनिषद और वेद को बीच में ले आए हैं, उसके कारण आप लाओत्से को समझ ही न सके होंगे। मैं इधर लाओत्से की बात बोलता होऊंगा, वहां आपके भीतर वेद की ऋचाएं उठती रही होंगी। उस धुएं में सब गड़बड़ हो गया होगा, कनफ्यूज हो गया होगा। पंडितजन अति कनफ्यूज्ड होते हैं। क्योंकि वे कभी किसी बात को सीधा नहीं सुन पाते। उनके पास ज्ञान तो पहले से ही होता है। यह नई बात भी जाकर उसी ज्ञान के ढेर में गिरती है। उस ढेर में जो आवाजें होती हैं, वही उनको सुनाई पड़ती हैं; यह बात सुनाई नहीं पड़ती। तो स्वभावतः उनको फिर दिखाई पड़ेगा कि ठीक है, शब्दों का ही भेद है। और क्या है?
यह अपने को समझा लेने की कोशिश है। अगर आप गीता को, उपनिषद को और वेद को समझ ही गए होते, तब तो ठीक था। तब तो शब्दों का भी भेद नहीं है। तब तो शब्दों का भी भेद न दिखाई पड़ता; शैली का भी भेद न दिखाई पड़ता। तब तो भेद ही न दिखाई पड़ता। लेकिन अभी भेद दिखाई पड़ रहा है; शब्दों का दिखाई पड़ रहा है, शैली का दिखाई पड़ रहा है। भीतर के अर्थ का कोई पता है? क्या है अर्थ भीतर?
शब्द और शैली का भेद हैं। संसार का कोई भी आदमी कभी भी कोई मालिक बात, कोई नई बात कह सका है क्या?
फिर ध्यान रखना, वेद भी मौलिक बात न कह सकेंगे, गीता भी न कह सकेगी, उपनिषद भी न कह सकेंगे। फिर तो कोई बात मौलिक रहेगी ही नहीं।
इसे थोड़ा समझें। धर्म बड़ी जटिल बात है। धर्म के संबंध में दोनों बातें कही जा सकती हैं। कभी धर्म के संबंध में कोई मौलिक बात नहीं कही जा सकती-एक। और धर्म के संबंध में सदा ही मौलिक बातें कही जाती हैं—दो। धर्म के संबंध में कोई मौलिक बात नहीं कही जा सकती; क्योंकि वह जिस अनुभव से आती है, वह अनुभव शाश्वत, सनातन का है। चाहे कोई बुद्ध, चाहे कोई कृष्ण, चाहे कोई लाओत्से, जब भी कोई उस अनुभव को पहुंचता है, तो वह अनुभव एक है। और पहुंचने वाला उस तक पहुंचते-पहुंचते मिट जाता है, जिससे भेद पैदा
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