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________________ न गया, न पुराना, सत्य सनातन है 129 अपनी पत्नी बदल सकता है। पत्नी अपना पति बदल सकती है। यह सब हो सकता है। लेकिन इससे दुख का कोई अंत नहीं होगा। क्योंकि हम वही के वही बने रहेंगे। वह शनि हमारा पीछा करेगा; क्योंकि वह शनि हम ही हैं। वह कोई दूसरा होता तो उससे छुटकारे का उपाय था । कोई पूजा-पाठ करवा लेते, कोई मंत्र-तंत्र करवा लेते, और छुटकारा हो जाता। इतना आसान छुटकारा नहीं है। आप ही हैं अपना नरक, आप ही हैं अपना स्वर्ग । लेकिन इस बात को हम बचाने की कोशिश करते हैं। हम किसी और पर डालना चाहते हैं। जब एक ज्योतिषी आपको बता देता है कि शनि आपके पीछे पड़ा है, आपके सिर से बोझ उतर जाता है। यह कोई और दुष्ट पीछे पड़ा है, उसको ठीक करना है। उसको रास्ते पर लगाने का कोई उपाय करना है— पूजा से करें, समझा-बुझा कर करें, मंत्र-तंत्र से करें। मगर एक बात पक्की हो गई कि आप जिम्मेवार नहीं हैं। ज्योतिषियों को हाथ दिखाने से जो आपको सुख मिलता है, उसका और कोई कारण नहीं है। आप जिम्मेवार नहीं हैं। भाग्य, हाथ की रेखाएं, विधि की रेखाएं, कोई और जिम्मेवार है। कहीं भी मेरी जिम्मेवारी मुझसे उतर जाए तो हलकापन लगता है। लेकिन वह हलकापन आपको सुख नहीं देगा; वह और गहरे दुखों में ले जाएगा; क्योंकि आप ही जिम्मेवार हैं। और यह हलकेपन का अनुभव होते से ही आप नया बोझ रखने के लिए स्वतंत्र हो गए। अब आप फिर वही करते जाएंगे, जो आप कर रहे थे। स्वतंत्र है आदमी कर्म करने को, फल भोगने को नहीं । श्रीकृष्ण ने कहा है, कर्म तू कर और फल मुझ पर छोड़ दे। तू अगर फल भी खुद पकड़ता है तो तू मुसीबत में पड़ेगा; क्योंकि फल तेरे हाथ में नहीं है। फल की आकांक्षा मत कर, तू कर्म कर । फल की आकांक्षा मत कर। क्योंकि फल की आकांक्षा तुझे गलत दिशा में ले जाएगी। फल तेरे हाथ में नहीं है। कर्म तेरे हाथ में है । और अगर कर्म का फल दुखद आता है तो तुझे जानना चाहिए कि कर्म बदलना है, फल नहीं। अगर कर्म का फल सुखद आता है तो तुझे जानना चाहिए कि तू इस कर्म की दिशा में जा सकता है। लेकिन एक घटना घटती है। जो आदमी दुख में पड़ा है, वह सुख की तरफ जाना चाहता है – स्वभावतः । लेकिन जो सुख में पड़ जाता है, वह सुख से भी ऊपर उठना चाहता है – स्वभावतः । दुखी आदमी सुख की तरफ जाना चाहता है; इसलिए उसे नियम की प्रतिकूलता छोड़ कर अनुकूलता पकड़नी चाहिए। सुखी आदमी सुख से भी फिर ऊब जाता है। सुखी आदमी को सुख भी फिर बासा मालूम पड़ने लगता है। सुखी आदमी को फिर सुख में भी स्वाद नहीं आता। रोज-रोज मीठा-मीठा खाते-खाते मीठा भी कड़वा मालूम पड़ने लगता है। सुख से जब आदमी ऊब जाता है, तब वह तीसरे आयाम में प्रवेश करता है। तब न नियम की अनुकूलता, न प्रतिकूलता; क्योंकि अनुकूलता - प्रतिकूलता दोनों में मैं मौजूद हूं। तब वह अपने को ही नियम में विसर्जित कर देता है। तब वह न नियम के अनुकूल होता है, न प्रतिकूल; नियम के साथ एक हो जाता है। और यह नियम के साथ एक हो जाना ताओ है। तब वह कहता है कि अब तक मैं कर्म चुनता था, अब मैं कर्म भी नहीं चुनता । तो कृष्ण कहते हैं कि तू फल की आकांक्षा छोड़, कर्म किए जा; दुख तुझे नहीं होगा । लाओत्से कहता है, तू कर्म भी छोड़ और विश्व के साथ एक हो जा; फिर तुझे सुख भी नहीं होगा। दुख भी नहीं होगा; सुख भी नहीं होगा । फिर ये द्वंद्व के सारे अनुभव खो जाएंगे, और अद्वैत के आनंद का प्रारंभ | उस एक को संत पकड़ लेते हैं, लाओत्से कहता है । वे दो को छोड़ देते हैं और एक को पकड़ लेते हैं। एक मित्र ने प्रश्न नहीं पूछा है, जैसे मैंने उनसे कुछ पूछा हो, उन्होंने जवाब दिया हैं। संक्षेप में लाओत्से ने बहुत अच्छी बातें कही हैं...।
SR No.002373
Book TitleTao Upnishad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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