________________
ताओ उपनिषद भाग ३
बहुत बड़ा था सफेद कागज का टुकड़ा, पर वह किसी को दिखाई नहीं पड़ रहा है। दिखाई पड़ रहा है एक काला बिंदु। उसका कारण है। कोरापन हमें दिखाई ही नहीं पड़ता; कोई दाग हो तो दिखाई पड़ता है। जितना स्वच्छ और कोरापन हो, उतना ही अदृश्य हो जाता है। शायद परमात्मा इसीलिए दिखाई हमें नहीं पड़ता । वह जगत का कोरापन है, इनोसेंस है । वह जगत की निर्दोषिता है। लेकिन दाग हमें दिखाई पड़ते हैं। दाग देखने में हमारी कुशलता का कोई अंत नहीं है।
एक बच्चा तो कोरा पैदा होता है। फिर हम उस पर लिखना शुरू करते हैं। जरूरी है कि हम उस पर कुछ लिखें। जीवन के संघर्ष के लिए उपयोगी है। शायद कोरे कागज की तरह तो वह जी भी न पाएगा। कोरे कागज की तरह शायद वह एक क्षण भी इस जीवन के संघर्ष में सफल न हो पाएगा। लिखना जरूरी है। कहें कि एक जरूरी बुराई है, नेसेसरी ईविल है। फिर हम लिखते जाएंगे। उसका नाम देंगे, उसका रूप देंगे।
आप कहेंगे कि नाम तो ठीक है, रूप तो हर आदमी लेकर पैदा होता है।
वह भी खयाल गलत है। नाम भी हम देते हैं, रूप भी हम देते हैं। क्यों? क्योंकि जो शक्ल एक मुल्क में सुंदर समझी जाती है, दूसरे मुल्क में असुंदर समझी जाती है। एक ढंग का चेहरा चीन में सुंदर समझा जाता है, ठीक वैसे ही ढंग का चेहरा भारत में सुंदर नहीं समझा जाएगा। चपटी नाक चीन में असुंदर नहीं है, सारी दुनिया में असुंदर हो जाएगी। बड़े और लटके हुए ओंठ नीग्रो के लिए असुंदर नहीं हैं, सारी दुनिया में असुंदर हो जाएंगे। नीग्रो लड़कियां अपने ओंठ को बड़ा करने का सब कुछ उपाय करेंगी। पत्थर बांध कर लटकाएंगी, ताकि ओंठ चौड़ा हो जाए, बड़ा हो जाए। हमारे मुल्क में या जहां भी आर्यों का प्रभाव है, पश्चिम में, पतला ओंठ ।
कहना मुश्किल है कि कौन सुंदर है। दोनों के पक्ष और विपक्ष में बातें कही जा सकती हैं। क्योंकि नीग्रो कहते हैं कि ओंठ जितना चौड़ा हो, चुंबन उतना ही विस्तीर्ण हो जाता है । हो ही जाएगा। लेकिन पतले ओंठ को मानने वाले लोग कहते हैं कि ओंठ जितना चौड़ा हो, चुंबन तो विस्तीर्ण हो जाता है, लेकिन फीका हो जाता है। क्योंकि जब भी कोई चीज बहुत जगह फैल जाती है, तो उसका प्रभाव फीका हो जाता है, इंटेंसिटी कम हो जाती है। लेकिन क्या सुंदर है, पतला ओंठ या मोटा ओंठ ? समाज सिखाएगा कि क्या सुंदर है।
रूप भी हम देते हैं। नाम भी हम देते हैं, रूप भी हम देते हैं, विचार भी हम देते हैं। फिर व्यक्तित्व की पर्त बननी शुरू हो जाती है। आखिर में जब आप अपने को पाते हैं, तो आपको खयाल भी नहीं होता कि एक कोरापन लेकर आप पैदा हुए थे, जो पीछे छिप गया है— बहुत सी पर्तों में । वस्त्र इतने हो गए हैं कि आपको अब अपने को खोजना कठिन है। और आप भी इन वस्त्रों के जोड़ को ही अपनी आत्मा समझ कर जी लेते हैं। यही अधार्मिक आदमी का लक्षण है। जो वस्त्रों को ही समझ लेता है कि मैं हूं, वही आदमी अधार्मिक है। जो वस्त्रों के भीतर उसको खोजता है, जो समस्त सिखावन के पहले मौजूद था, और जो समस्त वस्त्रों को छीन लिया जाए तो भी मौजूद रहेगा, उस स्वभाव को, वही व्यक्ति धार्मिक है।
लाओत्से कहता है, छोड़ो सिखावन । जो-जो सीखा है, छोड़ दो, तो तुम स्वयं को जान सकोगे।
लेकिन हम बड़े उलटे लोग हैं। हम तो स्वयं को भी जानना हो तो उसे भी दूसरों से सीखने जाते हैं। स्वयं को खोना हो, तो दूसरे से सीखना अनिवार्य है। स्वयं को जानना हो, तो दूसरों की समस्त शिक्षाओं को छोड़ देना जरूरी है । जगत में कुछ भी जानना हो अपने को छोड़ कर तो शिक्षा जरूरी है। और जगत में स्वयं को जानना हो तो समस्त शिक्षा का त्याग जरूरी है। क्योंकि जगत में कुछ और जानना हो तो बाहर जाना पड़ता है और स्वयं को जानना हो तो भीतर आना पड़ता है। यात्राएं उलटी हैं।
तो धर्म एक तरह की अनलर्निंग है; शिक्षा नहीं, एक तरह का शिक्षा विसर्जन, एक तरह का शिक्षा का