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ताओ उपविषद भाग ३
ताओ, धर्म, संन्यास, जो भी हम नाम दें, मुक्ति है-न स्वतंत्रता, न परतंत्रता। "
इसे एक दूसरी तरफ से समझ लें तो खयाल में आ जाएगा। हम जीते हैं द्वंद्व में। या तो होते हैं दुख में, या सुख में। तो हम पूछते हैं, जब परमात्मा में हम होंगे तो सुख होगा कि दुख ?
दोनों नहीं होंगे। हमारा सुख और दुख एक ही चीज के भेद हैं। इसलिए हमें एक नया शब्द गढ़ना पड़ाः आनंद। आनंद का अर्थ सुख नहीं है। आनंद का अर्थ है : सुख-दुख दोनों का अभाव। हालांकि जब हम सुनते हैं आनंद, तो हमें सुख का ही खयाल आता है। और जब हम आनंद की तलाश करते हैं, तब भी हम सुख की ही खोज कर रहे होते हैं। हमारे मन में आनंद का अर्थ होता है महासुख। हमारे मन में आनंद का अर्थ होता है, जहां दुख बिलकुल नहीं है। हमारे मन में आनंद का अर्थ होता है, जहां सुख शाश्वत है। यह सब गलत है। ये सब गलत बातें हैं। जब तक सुख है, तब तक आनंद हो न सकेगा। क्योंकि सुख के साथ दुख जुड़ा ही रहेगा। आनंद है अभाव-- सुख का भी, दुख का भी। इसलिए बुद्ध ने आनंद शब्द का भी उपयोग नहीं किया। क्योंकि यह भ्रामक है; इससे सुख की झलक मिलती है। इससे सुख की झलक मिलती है। तो बुद्ध ने शांति शब्द का प्रयोग किया। सब शांत हो गया है-सुख भी, दुख भी। सब उत्तेजना खो मई है।
लेकिन सभी शब्दों के साथ अड़चन खड़ी रहेगी। क्योंकि हमारे सब शब्द द्वैत में चलते हैं। शांति है तो अशांति है; उसके विपरीत हमारे मन में खयाल उठता है।
ठीक ऐसे ही स्वतंत्रता-परतंत्रता, दोनों जहां खो जाती हैं, वहां मुक्ति है, वहां मोक्ष है। मोक्ष स्वतंत्रता नहीं है, परतंत्रता भी नहीं है; दोनों के पार उठ जाना है, दोनों का अतिक्रमण है। और जब व्यक्ति एक हो जाता है अस्तित्व के साथ, तो अकेला ही हो जाता है, अकेला ही बच रहता है। तब वह कह पाता है : अहं ब्रह्मास्मि, मैं ही ब्रह्म हूं। अब कोई दूसरा न रहा। इसलिए द्वैत के सब शब्द व्यर्थ हो जाते हैं।
एक मित्र ने पूछा है कि मैं प्रकृति के साथ अंतरतम तादात्म्य के साथ चलू, बाखतम तादात्म्य के साथ चलूं या प्रतिकूल चलूं, तीनों परिस्थितियों में प्रकृति समान रूप से प्रसन्न है, कोई भी एक परिस्थिति का चुनाव करने को मैं संपूर्ण रूप से स्वतंत्र हूं, फिर तीनों चुनाव में मेरी प्रसन्नता में फर्क क्यों पड़ेगा?
फर्क पड़ेगा, क्योंकि तीनों के अलग-अलग अनुभव हैं। ऐसा समझें, जमीन में गुरुत्वाकर्षण है; आप रास्ते पर चलते हैं; आप सीधे चलते हैं, नहीं गिरते हैं। स्वतंत्र हैं आप; आप चाहें आड़े-तिरछे चलें और गिर जाएं। गुरुत्वाकर्षण नहीं कहेगा कि आड़े-तिरछे मत चलो। आड़े-तिरछे चलें, गिर जाएं, टांग टूट जाए, दर्द हो, तकलीफ हो। जब आप आड़े होकर गिरते हैं जमीन पर, तब भी वही गुरुत्वाकर्षण काम करता है, जब आप खड़े चल रहे थे, तब काम करता था। कोई फर्क नहीं है। वही नियम काम कर रहा है। नियम निरपेक्ष भाव से काम कर रहा है। आपने गलती की चलने में, या गलत का चुनाव किया, चोट खाएंगे। ठीक का चुनाव किया, चोट नहीं खाएंगे।
सुख का अर्थ ही क्या है? सुख का अर्थ है : नियम के अनुकूल। दुख का अर्थ है : नियम के प्रतिकूल। नियम निष्पक्ष है। आपने जहर पी लिया; प्रकृति आपको मार डालेगी। आप बीमार हैं; जहर की एक मात्रा ली; बीमारी मर जाएगी, आप स्वस्थ हो जाएंगे। पानी भी आप ज्यादा पी लें तो जहर हो जाएगा। तो पानी पीने में भी संयम रखना पड़ता है; शराब पीने में ही नहीं। पानी भी ज्यादा पी लें तो मौत आ जाएगी। पानी निष्पक्ष है। कोई पानी आपसे कहता नहीं कितना पीएं। वह स्वतंत्रता आपकी है। लेकिन पानी की एक प्रकृति है। अगर आप नियम के अनुकूल पीएंगे, सुखदायी हो जाएगा; नियम के बाहर जाएंगे, दुखदायी हो जाएगा।
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