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बबया,बपुराना, सत्य सनातन
मुझसे पृथक कोई है नहीं। तो कौन मेरे भाग्य का निर्णय करे? मैं समस्त के साथ एक हूं। और इस समस्त के साथ ऐक्य का नाम ही मोक्ष है। इसलिए हमने स्वतंत्रता शब्द का भारत में उपयोग नहीं किया। क्योंकि स्वतंत्रता में भाव बना रहता है कि कोई स्वतंत्र करने वाला है। हमने शब्द उपयोग किया है-मोक्ष, मुक्ति। और हमने कहा है, मोक्ष जो है वह आत्मा का स्वभाव है।
- नियति, परतंत्रता, स्वतंत्रता, सब शब्द व्यर्थ हो जाते हैं, अगर हम प्रकृति के साथ एक हैं। एक बूंद नदी के साथ बही जा रही है। अगर वह बूंद कहे कि मुझे नदी के साथ बहना पड़ रहा है तो परतंत्र हो गई। अगर वह बूंद कहे कि मैं अपनी इच्छा से नदी के साथ बह रही हूं तो स्वतंत्र हो गई। और अगर वह बूंद कहे कि मैं नदी हूं तो मुक्त हो गई। वह जो मुक्तता है, वह एकता का नाम है। अब नदी कोई और है ही नहीं, जिससे कोई संबंध बनाया जाए स्वतंत्रता का या परतंत्रता का। कोई दूसरा नहीं है, जिससे हमारा संबंध बने। संबंध खो गए, मैं ही हूँ। अपने से ही कोई स्वतंत्र और परतंत्र कैसे होगा? अपने से ही कोई स्वतंत्र और परतंत्र कैसे होगा?
अगर आप इस पृथ्वी पर बिलकुल अकेले हों, इस अस्तित्व में बिलकुल अकेले हों, समझें कि सब खो गया, आप अकेले हैं अस्तित्व में, उस समय आप स्वतंत्र होंगे कि परतंत्र होंगे? उस समय आप क्या कहेंगे, आप स्वतंत्र हैं या परतंत्र हैं? दोनों बात व्यर्थ हो जाएंगी। आप मुक्त होंगे। यह मुक्तता आपकी निजता होगी, आपका अंतर-भाव होगा।
हमारी स्वतंत्रता तो परतंत्रता का ही एक रूप है। और हमारी परतंत्रता भी स्वतंत्रता का एक रूप है। उन दोनों में बहुत फासला नहीं है। एक आदमी घर में है तो हम कहते हैं स्वतंत्र है और जेल में है तो हम कहते हैं परतंत्र है। कहां स्वतंत्रता समाप्त होती है, कहां परतंत्रता शुरू होती है, कहना मुश्किल है। और जो घर में है, वह भी कितना स्वतंत्र है? क्योंकि बुद्ध घर से भाग गए, क्योंकि घर उन्हें परतंत्रता मालूम पड़ी। आप नहीं भागे हैं, परतंत्रता के आदी हो गए होंगे। जेल के भी लोग आदी हो जाते हैं।
फ्रेंच रिवोल्यूशन के वक्त बैस्तील के किले को तोड़ दिया क्रांतिकारियों ने कैदी थे वहां बंद, उनको निकाल बाहर कर दिया। कोई चालीस साल, कोई पचास साल से कैदी था। आजन्म कैदियों का निवास था वहां। आधे कैदी सांझ वापस लौट आए। और उन्होंने कहा, बाहर हमें अच्छा नहीं लगता।
जो आदमी चालीस साल जेलखाने में रहा हो, बाहर की दुनिया खतम हो गई। चालीस साल! बाहर की दुनिया मर गई, वह बाहर की दुनिया के लिए मर गया। न उसका कोई पहचानने वाला है; न कोई मित्र है, न कोई शत्रु है। और बाहर सब अजीब सा लगने लगा। और बाहर जाकर रोटी भी कमानी पड़ेगी। वह परतंत्रता मालूम पड़ने लगी। जेलखाने में रोटी सुबह ठीक वक्त पर मिल जाती है। कोई चिंता नहीं है, कोई जिम्मेवारी नहीं है। बाहर जाकर उस आदमी को फिक्र करनी पड़ी कि छप्पर कहां है, जिसके नीचे मैं सोऊं। जेलखाने में छप्पर निर्मित था, उसे उसकी चिंता नहीं थी। जब वर्षा आती, तो जेलखाने के अधिकारी छप्पर को ठीक करते थे। कोई चिंता न थी। यह जेल बड़ी स्वतंत्रता थी। और फिर बड़ी तकलीफ हुई कि हाथ में जो बड़ी-बड़ी जंजीरें पड़ी थीं, पैर में जो बेड़ियां पड़ी थीं चालीस साल तक, उनके बिना कैदी सो न सके बाहर, नींद न आई। लगा कि कुछ-कुछ खाली है, कुछ खो रहा है। उन्होंने आकर कहा कि बिना जंजीरों के अब हम सो नहीं सकते। उनके बिना ऐसा लगता है हाथ नंगा हो गया है। आभूषण थे वे जंजीरें।
कौन जाने, आपके आभूषण जंजीरें हैं या क्या हैं। उनके बिना आप भी न सो सकेंगे। क्या है स्वतंत्रता और क्या है परतंत्रता? मात्राओं के भेद हैं। जिसके आप आदी हो गए हैं, उसको आप समझते हैं स्वतंत्रता। लेकिन हमारी स्वतंत्रता और परतंत्रता दोनों में हमारा अहंकार मौजूद है।
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