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ताओ उपनिषद भाग ३
एक मित्र ने पूछा है, आप करते हैं समस्त अस्तित्व इकट्ठा, संयुक्त, अद्वैत है, और उसमें जो भेद दिनवता है वह अळंकार का खेल है। इस संदर्भ में मनुष्य की स्वतंत्रता, जिसकी कल आपने यहां चर्चा की, बहुत दुर्बल हो जाती । यहां तो नियतिवाद ही अधिक संगत दिनवता हैं। समस्त द्वारा संचालित व्यक्ति स्वतंत्र कसे हो सकता है, इसे स्पष्ट करें।
__ हमारी सारी अड़चन शब्दों की है। जैसे, हम विपरीत शब्दों में सोचने के आदी हैं। हम सोचते हैं, या तो मनुष्य स्वतंत्र है या परतंत्र है। अगर स्वतंत्र है तो पृथक होना चाहिए और समस्त का उसके ऊपर कोई अधिकार नहीं होना चाहिए। अगर समस्त का अधिकार है उसके ऊपर, और समस्त ही का वह एक अंश मात्र है, तो परतंत्र हो गया, फिर स्वतंत्र कैसे होगा?
लेकिन. स्वतंत्र हो या परतंत्र, इन दोनों के बीच एक बात हमने मान रखी है वह यह कि मनुष्य पृथक है—दोनों के बीच! जब हम कहते हैं कोई स्वतंत्र है, तो उसका मतलब हुआ कि पृथक है, लेकिन समस्त की शक्ति के बाहर है। जब हम कहते हैं परतंत्र है, तो उसका अर्थ हुआ कि पृथक है, लेकिन समस्त की शक्ति के भीतर है।।
लाओत्से कहता है, पृथक है ही नहीं। इसलिए स्वतंत्रता और परतंत्रता का कोई अर्थ नहीं है। पृथक है ही नहीं। मनुष्य प्रकृति ही है, या मनुष्य परमात्मा ही है। जब हम दो मानें परमात्मा को और मनुष्य को, तो स्वतंत्रता का
और परतंत्रता का सवाल उठता है। परमात्मा दूसरा हो तो हम उसके खिलाफ स्वतंत्र हो सकते हैं, या उसके अनुगत होकर परतंत्र हो सकते हैं। लेकिन अगर हम परमात्मा के साथ एक ही हैं तो स्वतंत्रता और परतंत्रता का हमारी भाषा में जो अर्थ होता है, वह खो गया।
अगर परमात्मा के साथ हम एक ही हैं और परमात्मा के अतिरिक्त कोई भी दूसरा नहीं है, तो परमात्मा स्वतंत्र है, ऐसा कहना ठीक नहीं; परमात्मा स्वतंत्रता है। इसमें फर्क है। स्वतंत्र तो हमें किसी के खिलाफ होना पड़ता है। स्वतंत्रता हमारा स्वभाव होता है। परमात्मा स्वतंत्र नहीं है क्योंकि स्वतंत्र का तो मतलब हुआ कि कोई और है जिसके विपरीत वह स्वतंत्र है, जिससे वह स्वतंत्र है। परमात्मा अकेला है। कोई दूसरा नहीं है, जो उसे परतंत्र कर सके या स्वतंत्र कर सके। उसका स्वभाव ही स्वतंत्रता है। उसके अलावा कोई दूसरा है ही नहीं। गॉड इज़ नाट फ्री, गॉड इज़ फ्रीडम। और हम उसके साथ एक हैं; इसलिए हम भी स्वतंत्रता हैं। मनुष्य स्वतंत्र है, ऐसा नहीं, मनुष्य भी स्वतंत्रता है। कोई है नहीं जो उसे परतंत्र कर सके; कोई है नहीं जो उसे स्वतंत्र कर सके।
ध्यान रखें, जब कोई आपको स्वतंत्र करता है, तब भी आप परतंत्र ही होते हैं; क्योंकि किसी ने आपको स्वतंत्र किया। जो स्वतंत्रता दी जाती है, वह स्वतंत्रता नहीं है। वह परतंत्रता का ही एक उदार रूप है। स्वतंत्रता किसी पर निर्भर न होने का नाम है। लेकिन तब सवाल उठता है कि फिर तो आदमी नियतिवाद में घिर जाएगा। प्रकृति सब कुछ कर रही है! आदमी?
लेकिन हम एक बात माने चले ही जाते हैं कि आदमी अलग है। तो फिर नियति खड़ी हो जाएगी, भाग्य खड़ा हो जाएगा। आदमी कहेगा, मैं क्या कर सकता हूं, जो परमात्मा करता है वही। लेकिन लाओत्से कहता है कि तुम जिस दिन जानोगे, पाओगे तुम हो ही नहीं। तो यह सवाल ही नहीं उठता कि तुम क्या कर सकते हो। परमात्मा जो कर रहा है, वही तुम कर रहे हो। नियति इसमें नहीं है।
नियति में पुनः, डेस्टिनी में, भाग्य में पुनः हमने भेद स्वीकार कर लिया। हमने मान लिया कि मैं भी हूं, और परमात्मा मेरे भाग्य को निर्धारित कर रहा है। मैं अलग हूं, वह निर्धारक है। लाओत्से की बात को ठीक से समझें, अद्वैत की बात को ठीक से समझें, तो नियति का भी कोई सवाल नहीं है। क्योंकि कोई मेरा भाग्य-निर्माता नहीं है।
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