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ताओ उपविषद भाग ३
का अनुयायी बुद्ध के वचन पर चलता है। वह आचार-सूत्र का अनुगमन है। बुद्ध चलते हैं स्वभाव पर अपना ही स्वभाव। बुद्ध को जो मान कर चलता है, उसके लिए दो संभावनाएं हैं। अगर वह सच में बुद्ध को मान कर चले तो उसे भी अपने स्वभाव पर चलना चाहिए। अगर वह न समझ पाए और बुद्ध से मोहित हो जाए और बुद्ध की बात उसे अच्छी लगे, लेकिन इस रहस्य को न समझ पाए कि जैसा बुद्ध चलते हैं अपने स्वभाव पर, ऐसे ही मैं भी चलूं अपने स्वभाव पर, यही असली रहस्य है समझने का, तो फिर बुद्ध जैसा चलते हैं, वैसा मैं चलूं, यह दूसरा परिणाम होगा। यह विकृति है। तो बुद्ध जैसा उठते हैं, वैसा मैं उठ्; बुद्ध जैसा बैठते हैं, वैसा मैं बैठं; बुद्ध जो खाते हैं, वह मैं खाऊं; बुद्ध जो पीते हैं, वह मैं पीऊं; बुद्ध जैसा करते हैं, जो करते हैं।
कोई अनुगमन करेगा, तो लाओत्से कहता है, आचार-सूत्रों का अनुगमन करने वाला आचार-सूत्रों के साथ एक हो जाएगा।
लेकिन ऐसा व्यक्ति एक छाया मात्र होगा। ऐसे व्यक्ति के पास आत्मा नहीं होगी, सिर्फ छाया होगी। आत्मा तो उसके पास होगी, जो स्वयं का अनुगमन करेगा। और बड़े शिक्षक जो हैं, उनकी सारी चेष्टा यह है कि तुम अपना अनुगमन करो। लेकिन उनकी यह बात हमें इतनी प्रीतिकर लगती है और हम ऐसे सम्मोहित हो जाते हैं कि हम कहते हैं कि ठीक है, जंचती है बात आपकी, हम आपका अनुगमन करेंगे। यहां बड़ा ही बारीक फासला है, और उस बारीक फासले में सारा उपद्रव हो जाता है।
बुद्ध आनंद को कहते हैं, तू मुझे छोड़ दे, मैं ही तेरे लिए बाधा हूं। बुद्ध मर रहे हैं। आनंद छाती पीट कर रोने लगता है। बुद्ध कहते हैं कि आनंद, तू क्यों रोता है? आनंद कहता है, आपके रहते भी मैं ज्ञान को उपलब्ध न हो सका तो अब आपके जाने पर कैसे उपलब्ध हो सकूँगा? बुद्ध कहते हैं, मुझसे पहले, जब मैं नहीं था, तब भी लोग ज्ञान को उपलब्ध हुए; मैं खुद ही अज्ञानी था, मैं भी बिना किसी बुद्ध के ज्ञान को उपलब्ध हुआ। मैं नहीं रहूंगा, तो आनंद, तू सोचता है जगत में फिर कोई ज्ञान को उपलब्ध न होगा? सच तो यह है आनंद, कि तू आनंद मना; क्योंकि अब मैं न रहूंगा तो शायद तू अपना अनुसरण कर सके। मेरे रहते तू अपना अनुसरण नहीं कर पाएगा।
मरते क्षण के आखिरी शब्द जो हैं बुद्ध के, वे पहले सूत्र के शब्द हैं : अप्प दीपो भव! अपने लिए स्वयं दीपक बन जाओ। दूसरे को दीया मत मानो; दीया तुम्हारे भीतर है। तुम अपने ही दीपक बन जाओ।
लेकिन बुद्ध की यह बात इतनी प्रीतिकर लगती है कि हम बुद्ध को दीया बनाने की गलती कर सकते हैं। और उस गलती में हम छाया रह जाएंगे। फिर हम अनुगमन करते रहेंगे। लेकिन हमारा जो एकात्म है वह महाप्रकृति से नहीं होगा; उस महाप्रकृति को जिन्होंने अनुभव किया है, उनके आचरण से होगा। उसमें हम छायावत हो जाएंगे।
इसलिए वास्तविक अनुयायी वही करता है, जो उसके गुरु ने अपने साथ किया। झूठा अनुयायी वही करता है, जो अनुयायी को दिखाई पड़ता है कि गुरु करता है।
इन दोनों में फर्क है। इन दोनों में बुनियादी फर्क है। गुरु ने क्या किया, वही करता है वास्तविक अनुयायी। गुरु क्या करता दिखाई पड़ता है अनुयायी को, झूठा अनुयायी वही करने लगता है। तब नकल ऊपरी हो जाती है। और तब अनुयायी एक कार्बन कापी हो जाता है। फिर मूल प्रति को खोजना असंभव है। क्योंकि जिसने कार्बन कापी को समझ लिया कि यह मूल हो गया, तो लाओत्से कहता है, खतरा यह है प्रकृति का, जीवन के परम नियम का खतरा यह है कि तुम आचार-सूत्रों के साथ एक हो जाओगे और तुम्हें पता ही नहीं चलेगा कि तुमने छाया के साथ अपने को एक मान लिया है। यह एकात्म इतना हो जाएगा कि तुम समझोगे, मैं छाया ही हूं।
बुद्ध के बहुत बड़े अनुयायी बोधिधर्म ने कहा है...। कोई शिष्य पूछता है कि बुद्ध का नाम सुबह लेना चाहिए या नहीं? बोधिधर्म ने कहा है, जब भी बुद्ध का नाम लो, तो कुल्ला करके मुंह भी साफ कर लेना।
छापा हा हा
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