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ताओ उपनिषद भाग ३
हमारे प्रयोजन ही हमारे अनुभव बनते हैं। इतनी महान घटना घट रही है कि वर्षा, सारा आकाश आप पर बूंदें बरसा रहा है, उससे कोई लेना-देना नहीं है, वह कहीं पता ही नहीं चलता, आदमी भागने लगता है कि कपड़े न भीग जाएं। कपड़े भीग भी जाएंगे तो कितना महंगा है यह कृत्य। हम देखते हैं वही, जो हमारे क्षुद्र स्वार्थों से बंधा है। इसलिए प्रकृति का जो विराट निहित अर्थ है, जो रहस्य है, जो संकेत है, जो संदर्भ है, वह सब खो जाता है। हम सब अपने आस-पास एक दुनिया बना कर जीते हैं-अपने संदर्भ की। उसमें सभी कुछ हमारे हिसाब से होता है।
खलिल जिब्रान ने एक कहानी लिखी है कि एक रात एक होटल में बहुत से लोग आए, बहुत उन्होंने खाया-पीया, बहुत आनंदित हुए। रात आधी रात हो गई। जब वे विदा होने लगे तो होटल के मालिक ने अपनी पत्नी से कहा कि ऐसे मेहमान रोज आएं तो हमारे भाग्य खुल जाएं। जिसने पैसे चुकाए थे, उसने कहा कि दुआ करो परमात्मा से, हमारा धंधा ठीक से चले तो हम रोज आएं। उसने कहा, हम दुआ करेंगे। लेकिन अचानक उसे खयाल आया, पूछा, लेकिन तुम्हारा धंधा क्या है? उसने कहा, हम मरघट पर लकड़ी बेचने का काम करते हैं। दुआ करो, हमारा धंधा ठीक चले तो हम रोज आएं।
धंधा ठीक तभी चल सकता है, जब बस्ती में रोज लोग मरें। वह लकड़ी बेचने का काम है मरघट पर। लेकिन । सभी धंधे ऐसे हैं। कोई मरघट पर लकड़ी बेचने वाला धंधा ही ऐसा है, ऐसा मत सोचना। सभी धंधे ऐसे हैं।
लेकिन अपना-अपना धंधा है, अपना-अपना निहित स्वार्थ है। उसी के भीतर हम जीते हैं। इसलिए वह जो प्रकृति की स्वल्प भाषा है, अति मृदु, मौन, जरा सा छूती है और गुजर जाती है, उससे हम वंचित रह जाते हैं। उस संवेदनशीलता के लिए हमारा जो निहित स्वार्थ का घेरा है, वह टूट जाए और हम विराट अनंत का जो प्रयोजन है उसके साथ तादात्म्य हों, तो ही हम समझ पाएंगे।
लाओत्से कहता है, 'जब निसर्ग का स्वर भी दीर्घजीवी नहीं, तो मनुष्य के स्वर का क्या पूछना?'
वह कहता है, जब निसर्ग भी बोलता है और इतना अल्प, इतनी परम ऊर्जा और इतनी स्वल्प भाषा, तो मनुष्य के संदेश का क्या?
इसलिए लाओत्से ने जो सूत्र लिखे हैं, वे अति संक्षिप्त हैं। संक्षिप्ततम हैं। और इसी कारण लाओत्से की किताब समझी नहीं जा सकी। लाओत्से की किताब अभी भी अनसमझी पड़ी है। लोग उसे पढ़ भी लेते हैं, तो घंटे भर में पढ़ सकते हैं, आधा घंटे में पढ़ सकते हैं। छोटी सी तो किताब है। ऐसा जितनी देर में अखबार पढ़ते हैं सुबह का, उतनी देर में पढ़ कर फेंक दे सकते हैं।
क्यों स्वल्प है? इतना छोटा-छोटा क्यों? इतने अनखुले और रहस्यपूर्ण वचन क्यों? तो लाओत्से कहता है, इसलिए संक्षिप्त में जो मुझे कहना है, वह इतना है। 'इसलिए ऐसा कहा जा सकता है...।' इन तीन वचनों में लाओत्से की परी किताब का सार है।।
'ताओ का जो करता है अनुगमन, वह ताओ के साथ एकात्म हो जाता है। आचार-सूत्रों पर चलता है जो, वह आचार-सूत्रों के साथ एकात्म हो जाता है। और जो करता है परित्याग ताओ का, वह ताओ के अभाव से एकात्म हो जाता है। जो ताओ से एकात्म है, ताओ भी उसका स्वागत करने में प्रसन्न है। जो नीति से है एकात्म, नीति उसका स्वागत करने में आह्लादित है। और जो ताओ के परित्याग से एक होता है, ताओ का अभाव भी उसका स्वागत करता है।'
यह बड़ी अनूठी बात है। और एकदम से खयाल में न आए, ऐसी बात है। इसके बड़े अंतर्निहित अर्थ हैं। दो-तीन आयाम से हम समझने की कोशिश करें।
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