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ताओ उपनिषद भाग ३
निसर्ग स्वल्प संदेश देता है-प्रत्यक्ष भी नहीं, परोक्ष, छिपे हुए। इशारा करता है, बोलता भी नहीं। धीमी सी पुलक, धीमी सी सिहरन पैदा करता है। अगर हम संवेदनशील हों तो ही समझ पाएंगे। कोई वीणा पर हथौड़ी नहीं पटक देता है; धीमे से इशारा करता है और तार झनझना जाते हैं। लेकिन लुहार जो दिन भर हथौड़ा पटकता रहता है, उसको अगर ऐसे तार झनझनाएं तो वह कहे कि कैसी आवाज आ रही है, सुनाई भी नहीं पड़ती है। कान आदी हो गए हैं। संवेदना खो गई है। स्पर्श की क्षमता क्षीण हो गई है। स्वाद मंदा पड़ गया है। सब कुछ जड़ हो गया है। तो हमें कुछ भी पता नहीं चलता। हवा हमारे पास से गुजर जाती है-पूरे परमात्मा को बहाती हुई, हमारे रोएं में खबर भी नहीं उठती।
आपको पता है कि आप श्वास से ही श्वास नहीं लेते, रोएं-रोएं से श्वास लेते हैं? लेकिन आपको पता चलता है? वैज्ञानिक कहते हैं कि अगर आपकी नाक खुली रहने दी जाए और सारे रोएं बंद कर दिए जाएं, आप तीन घंटे में मर जाएंगे, श्वास आप कितनी ही लेते रहें। अगर सब रोएं बंद कर दिए जाएं, सिर्फ नाक खुली और मुंह खुला छोड़ दिया जाए कि मजे से श्वास लो, आप तीन घंटे से ज्यादा जिंदा नहीं रह सकेंगे। क्योंकि एक-एक रोआं श्वास ले रहा है। पूरे शरीर में करोड़ों रोएं श्वास ले रहे हैं। लेकिन आपको पता है? सिर्फ छोटे बच्चों को अनुभव . होता है, या लाओत्से जैसे बूढ़ों को अनुभव होता है।
लाओत्से ने कहा है, कहां से लेता हूं मैं श्वास? सब तरफ से, सब दिशाओं से, रोएं-रोएं से।
हमें तो इसकी पुनखोज करनी पड़े। ताओ परंपरा में यह एक गहन प्रयोग है-संवेदनशीलता को जगाने का। कभी इस पर प्रयोग करें। कभी दिन में पंद्रह मिनट लेट जाएं और अनुभव करें कि श्वास से ही नहीं, शरीर के रोएं-रोएं से श्वास ले रहे हैं। इसकी पुनोज करनी पड़े। जरूर कुछ दिन प्रयोग करने पर अनुभव होना शुरू हो जाएगा कि श्वास रोएं-रोएं से आ रही है। पूरा शरीर तब जीवंत मालूम होगा। अभी पूरा शरीर जीवंत नहीं मालूम होता। सिर के आस-पास थोड़ी सी जीवंतता है; बाकी पूरा शरीर जड़ हो गया है।
पूरे शरीर में आप नहीं हैं, खोपड़ी के पास थोड़ी सी जगह में सीमित हो गए हैं। बाकी सब शरीर तो आप ढोते हैं, उसमें जीते नहीं। जिस दिन श्वास-श्वास का अनुभव होगा रोएं-रोएं से, उस दिन पता चलेगा, पूरा शरीर जीवित है। और उस दिन आपकी आत्मा खोपड़ी में मालूम नहीं पड़ेगी, तत्काल नाभि पर सरक जाएगी। उस दिन आपको ऐसा नहीं लगेगा कि मेरा केंद्र सिर के भीतर है, केंद्र नाभि के पास है। क्योंकि जब सब तरफ से श्वास आती है, सब तरफ से श्वास का वर्तुल बनता है और सब तरफ की श्वास आती है, तब आपको पता चलेगा, मैं नाभि से जी रहा हूं। तब नाभि केंद्र बन जाएगी। नाभि ही केंद्र है। लेकिन जो पूरे शरीर से श्वास के अनुभव को उपलब्ध होता है, वही नाभि केंद्र है, इसके अनुभव को उपलब्ध होता है।
जिस दिन आप पूरे शरीर से श्वास लेने में सक्षम हो जाएंगे, उस दिन जब हवा का झोंका आपके पास से निकलेगा, तो सिर्फ हवा का झोंका नहीं होगा, परमात्मा का झोंका भी होगा। और जब आपकी आंख के सामने एक फूल खिलेगा और हंसेगा, तो सिर्फ फूल नहीं खिलेगा, फूल से सारी प्रकृति खिलेगी और हंसेगी। और तब वह जो स्वल्पभाषी प्रकृति है, निसर्ग है, उसकी भाषा, उसकी कोड लैंग्वेज आपको समझ में आनी शुरू होगी।
हम आदमी की भाषा समझते हैं; वह भी ठीक से नहीं समझते हैं। मतलब सदा हमारे होते हैं। प्रकृति की भाषा तो वही समझ सकता है, जो सीखे; या आदमी की भाषा जो सीख ली है, उसे भूले। दोनों का एक ही मतलब है। अनलन करे, आदमी की भाषा भूले; ताकि निसर्ग की भाषा सीख सके।
निसर्ग की भाषा तो प्रतीक भाषा है। और प्रतीक परोक्ष हैं; सीधे, स्पष्ट नहीं हैं; सिर पर चोट की तरह नहीं पड़ते हैं। बहुत हलकी संवेदना, हलका संस्पर्श करते हैं और विदा हो जाते हैं। द्वार पर इतनी हलकी दस्तक कि
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