SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 115
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ताओ है परम स्वतंत्रता संस्पर्श अब मिलना असंभव है, उनके लिए शब्द छोड़े जा रहे हैं। शायद कोई उनमें से इन शब्दों के सूत्र को पकड़ कर भी लाओत्से के अस्तित्व तक प्रवेश कर जाए। कोई करना चाहे तो कर सकता है। लाओत्से इस सूत्र में कहता है, 'निसर्ग है स्वल्पभाषी।' नहीं, ज्यादा नहीं बोलती प्रकृति; लेकिन पर्याप्त बोलती है। ज्यादा नहीं बोलती, अल्प बोलती है; लेकिन सब बोल देती है, जो बोलने योग्य है। एक फूल खिलता है सुबह, सांझ गिर जाता है। जो कहना था, वह कह दिया गया; जो सुवास छोड़नी थी, वह छोड़ दी। सूरज निकलता है, महासूर्य सुबह, और सांझ अस्त हो जाता है। जो खबर देनी थी, वह दे दी गई। प्रकृति बहुत सूक्ष्म इशारे करती है, बहुत स्वल्प। लाओत्से कहता है, 'यही कारण है कि तूफान सुबह भर भी नहीं चल पाता।' उठता है तूफान, लेकिन पूरी सुबह भी नहीं चल पाता। 'आंधी-पानी पूरे दिन जारी नहीं रहता है।' कहां से आते हैं ये और कहां चले जाते हैं? क्या हैं ये, किस बात के प्रतीक हैं? कौन सा संदेश हैं? आते हैं निसर्ग से, विलीन हो जाते हैं निसर्ग में। निसर्ग की भाषा हैं ये। अगर कोई इनमें झांकना सीख जाए तो निसर्ग भी प्रतिपल अनंत-अनंत संदेश भेज रहा है। लेकिन बड़े स्वल्प हैं संदेश। क्षण भर भी चूके तो चूक जाएंगे। वही निसर्ग के संदेश ग्रहण कर सकता है, जो प्रतिपल सजग है। कोई निसर्ग, स्कूल के शिक्षक की भांति, सिर पर डंडा लेकर चौबीस घंटे सिखाता नहीं रहेगा। और अच्छा ही है कि निसर्ग लंबी शिक्षाएं नहीं देता। क्योंकि लंबी शिखाएं अक्सर लोगों को बधिर बना देती हैं। लंबी शिक्षाएं अक्सर लोगों को उबा देती हैं। लंबी शिक्षाओं से लोग सीखते कम हैं, सुनने के आदी हो जाते हैं, शब्दों से परिचित हो जाते हैं। आदी हो जाते हैं, फिर कोई चोट नहीं होती। सत्य का प्रथम संस्पर्श अगर प्रवेश न कर पाए तो उसकी पुनरुक्ति प्रवेश नहीं करती है। सत्य का पहला संस्पर्श ही अगर प्रवेश कर जाए तो ही आसान है बात। अगर हम सत्य को सुनने के भी आदी हो जाएं तो जितना हम सुनते हैं, उतना ही हमारे आस-पास दीवार मजबूत हो जाती है, द्वार बंद हो जाते हैं। इसलिए अक्सर यह होता है कि जिन मुल्कों में धर्म की बहुत चर्चा होती है, वहां लोग अधार्मिक हो जाते हैं। हमारा ही मुल्क है। जितनी धर्म की चर्चा हमने की है, उतनी पृथ्वी पर कभी किसी ने नहीं की। और शायद कभी कोई अब करेगा भी नहीं। इस भूल को दोहराना उचित भी नहीं है। जितने तीर्थंकरों, जितने अवतारों को हमने इस पृथ्वी के खंड पर मौका दिया है, उतना पृथ्वी के किसी दूसरे खंड पर मौका नहीं मिला। लेकिन परिणाम बहुत विपरीत है। परिणाम यह है कि हम महावीर और बुद्ध और कृष्ण के भी आदी हो गए हैं। अगर कृष्ण भी अचानक खड़े हो जाएं तो हमारे भीतर कोई तूफान और आंधी नहीं उठेगी। हम कहेंगे, जानते हैं, पहचानते हैं, परिचित हैं। परिचय अंधा कर देता है। निकटता बहरा बना देती है। महावीर भी अचानक खड़े हो जाएं तो हमारे भीतर कोई हलचल और कोई आंदोलन नहीं हो जाएगा। हम कहेंगे, ठीक है, पहले भी होते रहे हैं। महावीर जैसी महा घटना भी हमारे बीच एक साधारण घटना होगी। हम आदी हो गए हैं। सूर्य भी रोज सुबह निकलता है तो हमें कोई, हमें कोई पता नहीं चलता। आदी हो गए हैं। हम सारी चीजें, जो पुनरुक्त होती रहती हैं हमारे चारों ओर, उनसे आदी हो जाते हैं। थोड़ा सोचें, आदम ने जिस दिन पहली बार सूरज को निकलते देखा होगा, उसका आनंद, उसकी पुलक, उसका आह्वाद! आदम ने जिस दिन पहली बार रात में आकाश के तारे देखे होंगे, उसका नृत्य! वह नाच उठा होगा। उस रात सोना मुश्किल हुआ होगा। तारे अब भी वही हैं और हमारे भीतर का आदम, आदमी भी वही है। लेकिन हम आदी हो गए हैं। सब ठहर गया है। हमें सब पता है कि ठीक है, रात तारे होते हैं। जरूरी नहीं है कि हमने जाना हो। हो सकता है हमने सुना हो, या हमने फिल्म के पर्दे पर देखा हो। 105
SR No.002373
Book TitleTao Upnishad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy