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________________ ताओ उपनिषद भाग ३ अगर कान ही सुनते हों तो शब्द सुनाई पड़ते हैं; अगर प्राण कानों के भीतर से सुनने लगें तो सत्य सुनाई पड़ना शुरू हो जाता है। और जिसके प्राण कानों से झांक रहे हों, उसे वृक्षों की हवा में हिलती पत्तियों के स्वर में भी सत्य का अनुभव होगा। और जिसके प्राण कानों से न झांक रहे हों, बुद्ध कहते हों उसके सामने खड़े होकर कुछ, कि कृष्ण कहते हों, कि लाओत्से कहता हो, शब्द सुनाई पड़ेंगे और ऐसे ही बिखर जाएंगे जैसे हवा में पत्तियां हिली हों और बिखर गई हों। कहीं भीतर कुछ स्पंदित नहीं होगा। कहीं भीतर गहरे में कोई हलचल न मचेगी। कहीं भीतर केंद्र तक कोई किरण प्रवेश न करेगी। एक गहरा सहयोग चाहिए प्राणों का इंद्रियों के साथ। संतों ने मौन से बहुत कुछ कहा है। लेकिन सभी से मौन से नहीं कहा जा सकता; उनसे ही कहा जा सकता है जो अपनी समस्त इंद्रियों के पीछे अपने प्राणों को एकजुट करने को तैयार हों। शिष्य का इतना ही अर्थ है। शिष्य का इतना ही अर्थ है कि जो अपनी इंद्रियों के पीछे अपने प्राणों को जोड़ कर सीखने को तैयार है। डिसिप्लिन का इतना ही अर्थ है। आप अनुशासित हैं, इसका इतना ही अर्थ है कि आपकी इंद्रिय और आपके प्राण टूटे हुए अलग-अलग नहीं हैं; संयुक्त हैं, जुड़े हैं। और जब आंख देखती है, तो आंख ही नहीं देखती, आत्मा देखती है। आंख द्वार बन जाती है। और जब कान सुनते हैं, तो कान ही नहीं सुनते, आत्मा सुनती है। कान द्वार बन जाते हैं। तब आप अपनी इंद्रियों के द्वारा बाहर आते हैं। साधारणतः आपकी इंद्रियों के द्वारा जगत भीतर आता है। जब जगत भीतर आता है, तो कोई गहरी अनुगूंज नहीं होती। और जब आप फैलते हैं बाहर, तो गहनतम अनुगूज होती है। शिष्य का अर्थ है, जो तैयार है इस भीतरी अल्केमी के लिए, इस भीतरी रसायन के लिए कि प्राणों को साथ जोड़ देगा। हुआ एक सदगुरु था। एक व्यक्ति उसके पास आया और उसने हुआ से कहा कि मैं सत्य सीखने आया हूं। तो हुआ ने कहा, रुको और सीखो। बहुत दिन बीते। शिष्य ने कहा, अब तक आपने सिखाया नहीं। हुआ ने कहा कि अगर मेरे होने से ही तुम्हें शिक्षा नहीं मिल सकती तो मेरे कहने से नहीं मिल सकेगी। कहना बहुत कमजोर है; होना बहुत शक्तिशाली है। अगर मेरा समग्र अस्तित्व और मेरी मौजूदगी तुम्हें कुछ नहीं सिखा सकती तो मेरे शब्द, मेरे होंठों का कंपन, मेरी आवाज तुम्हें क्या सिखा सकेगी? बहुत फीकी है आवाज; मेरा होना तो बहुत विराट स्वर है। सीखो।। फिर और कुछ महीने बीते। शिष्य ने कहा कि मैं कब तक ऐसे रुका रहूं? आप कुछ सिखाते नहीं हैं। हुआ ने कहा, जो सीखने को तैयार है, उसे सिखाने की जरूरत नहीं पड़ती। और जो सीखने को तैयार नहीं है, उसे अब तक जगत में कोई सदगुरु सिखा भी नहीं सका है। यह काम मेरा नहीं है। यह काम तुम्हारा है कि तुम सीखो। वर्ष बीता। शिष्य ने कहा, अब क्या मैं चला जाऊं? मैं थक भी गया, ऊब भी गया। न आप बोलते, न आप कुछ कहते। हुआ ने कहा, तुम्हारी मर्जी! लेकिन अगर मेरे होने का आघात भी तुम्हारे ऊपर नहीं पड़ता है तो मेरी शिक्षाएं व्यर्थ ही होंगी। फिर तुम यह मत कहना किसी से जाकर कि मैंने सिखाया नहीं। सुबह जब तुमने मुझे नमस्कार किया है, तब क्या मैंने तुम्हें नमस्कार का उत्तर नहीं दिया? और सुबह जब तुम मेरे लिए चाय लेकर आए हो, तो क्या मैंने चाय तुमसे स्वीकार नहीं की? काश, तुम देखते जब मैंने तुम्हारे नमस्कार का उत्तर दिया है! तब तुम मुझे देखते! जब मैंने तुम्हारी चाय स्वीकार की है, तब तुम मुझे देखते! और जब तुमने मेरे चरणों पर सिर रखा है और मैंने तुम्हारे सिर पर हाथ रखा है, काश, तब तुम अनुभव करते! तो मैं तुम्हें प्रतिपल सिखा रहा हूं। लेकिन इस तरह की शिक्षा तो केवल शिष्यों को दी जा सकती है। लाओत्से ने मरने के पूर्व यह किताब लिखने की रजामंदी जाहिर की, उसका कुल कारण इतना है कि जो शिष्य नहीं हैं, जिनसे लाओत्से सीधा अब नहीं मिल सकेगा, जिनको लाओत्से के पास होने का अब कोई उपाय नहीं रहेगा, जिनको लाओत्से के अस्तित्व का 104
SR No.002373
Book TitleTao Upnishad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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