________________
टगिंस्टीन ने कहा है, जो कहा जा सकता है, वह थोड़े में ही कहा जा सकता है; जो नहीं कहा जा सकता, उसे विस्तार में भी कहने का कोई उपाय नहीं है। लेकिन संत और भी गहरी बात कहते रहे हैं। वे कहते रहे हैं, जो कहा जा सकता है, वह मौन में भी कहा जा सकता है, और जो नहीं कहा जा सकता, उसे कितने ही विस्तार में कहा जाए तो भी अनकहा रह जाता है। जो कहा जा सकता है, वह बिन कहे भी कहा जा सकता है। जो नहीं कहा जा सकता, कितना ही हम कहें, वह अछूता, अस्पर्शित रह जाता है। लाओत्से बहत स्वल्पभाषी है। सच तो यह है कि वह थोड़ा सा जो उसने कहा है, वह भी बड़ी मजबूरी में। अधिकतर लाओत्से चुप रहा है। या कहें
कि उसने अपनी चुप्पी से ही अधिकतर कहा है। कहा तो बहुत है, कहा तो बहुत गहरा है। लेकिन जीवन भर अपने शिष्यों के पास वह अधिकतर मौन था। शिष्य उसके साथ बैठते, उठते, चलते, यात्रा करते, सोते, खाते-पीते; बोलना अधिक व्यवसाय न था। उस मौन में, लाओत्से के उठने में, बैठने में, उसकी आंखों में, उसके हाथ के इशारों में, उसकी भाव-भंगिमा में, उसकी मुद्राओं में, उसकी क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं में, जो सूचन मिल जाता, वही उसका संदेश था।
लाओत्से ने जीवन भर कुछ नहीं कहा है। जीवन के अंत में यह ताओ तेह किंग किताब, अति छोटी से छोटी किताब है, यह उसने कही है। लाओत्से से कभी कोई पूछता कि कुछ कहो! तो लाओत्से कहता, जो समझ सकते हैं, वे बिना कहे भी समझ लेंगे; और जो नहीं समझ सकते हैं, उनके साथ कह कर भी समझाने का कोई उपाय नहीं है। अगर दृष्टि हो और गहराई हो, भाव हो, प्रेम है, तो मौन भी समझा जा सकता है। दृष्टि न हो, गहराई न हो, भाव न हो, प्रेम न हो, तो शब्द भी बहरे कानों पर पड़ते हैं और बिखर जाते हैं। सुन कर भी सुना हो, यह जरूरी नहीं; देख कर भी देखा हो, यह अनिवार्य नहीं।
हम देख कर भी अनदेखा छोड़ सकते हैं। हम सुन कर भी अनसुनी हालत में रह सकते हैं। क्योंकि सुनना अगर सिर्फ कान का ही काम होता तो बड़ा आसान हो जाता। कान के साथ भीतर प्राणों का तादात्म्य भी चाहिए। अन्यथा कान सुन लेंगे यंत्रवत और प्राणों का कोई तालमेल भीतर न हो तो बात कहीं भी उतरेगी नहीं। आंख अगर देख लेती तो काफी था। हम परमात्मा को कभी का देख लेते, अगर आंख अकेली देखने में समर्थ होती। आंख के साथ प्राणों का तालमेल चाहिए। जब आंखों के पीछे से प्राण झांकते हैं, तब कहीं भी देखें तो परमात्मा दिखाई पड़ जाएगा। और जब आंखों के पीछे से प्राण नहीं झांकते, आंखों से ही बाहर की वस्तुएं भीतर झांकती हैं, तो सभी जगह पदार्थ का अनुभव होता है। पदार्थ का अनुभव यह खबर देता है कि हमने अभी प्राणों से देखना नहीं सीखा; अभी सिर्फ आंखें देख रही हैं।
मोत्से से कभी कोई है, उनके साथ कह का है। दृष्टि न हो, नहर
103