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________________ समर्पण हैं मार ताओ का हैं; सब सापेक्ष है, कोई पूर्ण नहीं है। जो अभी प्रेम है, क्षण भर बाद प्रेम नहीं रह जाएगा। जहां अभी प्रेम की कोई खबर भी नहीं, क्षण भर बाद प्रेम का पौधा उग आएगा। कुछ नहीं कहा जा सकता। तो डिबोनो कहता है-पो, स्यात। महावीर स्यात का प्रयोग किए हैं। लेकिन उनके अनुयायियों ने उसको भी वाद बना दिया–स्यातवाद। वह वाद नहीं है। स्यात का मतलब ही यह है कि कोई वाद जगत में नहीं है। तुम जितने भी वाद प्रस्तावित करते हो...। वाद का मतलब यह होता है कि कोई दावा, कि ऐसा है। ऐसा ही है, तब वाद खड़ा होता है। महावीर कहते हैं, ऐसा ही है, मत कहो; इतना ही कहो, ऐसा भी है। बस, इतना कहो। ही पर जोर मत दो, भी पर जोर दो; तो कोई कलह नहीं है, कोई विवाद नहीं है। विवाद खड़ा होता है वाद के आग्रह से। अनाग्रह, कोई दावा नहीं। _ 'चूंकि वे किसी वाद की प्रस्तावना नहीं करते, इसलिए दुनिया में कोई भी उनसे विवाद नहीं कर सकता है। और क्या यह सही नहीं है, जैसा कि कहा है प्राचीनों नेः समर्पण में ही है संपूर्ण की सुरक्षा। और इस तरह संत सुरक्षित रहते हैं और संसार उनको सम्मान देता है।' समर्पण में ही है संपूर्ण की सुरक्षा, यही सूत्र का प्रारंभ था। इस सारे सूत्र में अलग-अलग पहलुओं से-लड़ना नहीं, छोड़ देना, संघर्ष मत करना, झुक जाना, विवाद मत करना, दावा मत करना, कोई प्रस्तावना ही मत करना, अपनी तरफ से कोई औचित्य सिद्ध मत करना, अपनी तरफ से झुक जाना, कड़े मत होना, अकड़ कर मत खड़े होना-इसी पहलू, इसी सत्य को अलग-अलग पहलुओं से लाओत्से ने कहा है। सार है समर्पण, सरेंडर। इस आखिरी बात को हम ठीक से समझ लें। वह इसका सार है। संघर्ष एक शब्द है, एक शब्द है समर्पण। संघर्ष में दूसरे से लड़ना है, जीतना है, जीतने की आकांक्षा है; हार परिणाम है। समर्पण में दूसरा दूसरा नहीं है, दूसरे से कोई विरोध नहीं है, दूसरे से कोई शत्रुता नहीं है। समर्पण में दूसरा स्वीकार है, अविरोध से स्वीकार है; जैसे आए आंधी और छोटा घास का तिनका झुक जाए, समर्पित हो जाए। आंधी से शत्रुता नहीं बांधता, मित्रता मानता है। सोचता है, आंधी खेल रही है साथ मेरे। आंधी को गुजर जाने देता है, राह दे देता है। यह जो छोटे तिनके का समर्पण है आंधी के लिए, यही उसके प्राणों की सुरक्षा है। आंधी बीत जाएगी, तिनका खड़ा हो जाएगा। बड़े वृक्ष गिर जाएंगे, तिनका बच जाएगा। समर्पण भी, इस पूरे जगत को अगर हम एक आंधी समझें, इस पूरे अस्तित्व को एक झंझावात समझें, तो समर्पण इस झंझावात में सुरक्षा का उपाय है। यहां झुक जाना है। झुक जाना शब्द अच्छा नहीं लगता हमारे मन में; क्योंकि हमारी भाषा न झुकने की है। लेकिन लाओत्से को समझेंगे तो झुक जाना शब्द बड़ा अदभुत है। और बहुत कम लोग इस महानता को उपलब्ध होते हैं कि झुक जाएं। झुक जाना है इस झंझावात में जो जगत का है। क्योंकि हम इसके अंग हैं, इससे पृथक नहीं हैं। इससे लड़ाई बेमानी है, पागलपन है। जैसे मैं अपने ही दोनों हाथों को लड़ाऊं, ऐसा पागलपन है। जैसे मेरी आंख मेरे शरीर से लड़ने लगे, मेरे पैर मेरे पेट से लड़ने लगें, ऐसा पागलपन है। लड़ाई शब्द खतरनाक है। अस्तित्व के रहस्य में जिसे प्रवेश करना है, वह अपने को ऐसा छोड़ दे, जैसे बूंद सागर में छोड़ देती है, एक हो जाती है। जैसे सूखा पत्ता हवा में छोड़ देता है, हवा के साथ एक हो जाता है। इस पूरे अस्तित्व की झंझा में मैं एक अंश मात्र हूं, पृथक नहीं, अलग नहीं। मेरा कोई अलग अस्तित्व नहीं है, एक अस्तित्व का ही एक कण हूं। तो लड़ाई बेमानी है, महंगी है; नाहक कष्ट, नाहक दुख है। पश्चिम में आज इतनी चिंता का जो कारण है, वह इस बात से पैदा हुआ है कि व्यक्ति अस्तित्व से अलग है। जो लोग भी अपने को अस्तित्व से अलग मानेंगे, वे चिंता में पड़ जाएंगे। क्योंकि तब सारा जगत शत्रु है और मुझे अपनी रक्षा करनी है। यह रक्षा हो नहीं सकती; और तब मैं टूटुंगा, मिटूंगा, परेशान होऊंगा। अगर यह सारा अस्तित्व मैं ही हूं और इसके साथ एक हूं तो मेरी मृत्यु भी मेरी मृत्यु नहीं है। 97
SR No.002373
Book TitleTao Upnishad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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