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ताओ उपनिषद भाग ३
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उमर खय्याम ने कहा है कि क्या हुआ अगर मैं मर भी गया ! तो मेरी जो मिट्टी मिट्टी में मिल जाएगी, कोई पौधा उसमें से उगेगा, कोई फूल खिलेगा, तो मैं उस फूल में खिलूंगा। मेरे प्राण विसर्जित हो जाएंगे हवाओं में, किसी के फेफड़े में प्रवेश करेंगे, कोई हृदय धड़केगा, तो मैं उस हृदय में धड़कूंगा ।
मैं मिट नहीं सकता हूं; क्योंकि मैं नहीं हूं। मैं मिट सकता हूं; अगर मैं हूं। अगर मैं नहीं ही हूं, यह अस्तित्व ही है, तो मेरे मिटने का कोई उपाय न रहा । आज जो मेरे हाथ में बहता हुआ खून है, वह किसी पक्षी में किसी दिन आकाश में उड़ा होगा। आज मेरी हड्डी में जो मिट्टी है, वह मिट्टी कभी किसी वृक्ष में फूल बनी होगी; फिर कभी फूल बनेगी। आज जिस शब्द से मैं बोल रहा हूं, वह शब्द कभी किसी वृक्ष में हवा की टक्कर से पैदा हुआ होगा; फिर कभी वृक्षों के बीच बहेगा । मेरा होना अगर अस्तित्व से अलग है तो मेरा मिटना निश्चित है। लेकिन अगर मैं अस्तित्व से एक हूं तो कभी फूल में, कभी पक्षी में, कभी आकाश में, कभी मिट्टी में, अनंत अनंत रूपों में बना ही रहूंगा। मेरे मिटने का फिर कोई उपाय नहीं है।
इसलिए लाओत्से कहता है, समर्पण में है सुरक्षा । जिसने अपने को खो दिया अस्तित्व में पूरा, उसकी फिर कोई असुरक्षा नहीं है। उसकी इनसिक्योरिटी का फिर कोई सवाल नहीं है। बचाया अपने को कि असुरक्षा निश्चित है। फिर मुसीबत खड़ी है।
और हम सब अपने को बचाने में लगे हैं। बचाना ही हमारा दुख है। और बचा भी नहीं पाते हैं। बचा भी नहीं पाएंगे। मिटेंगे तो ही, खोएंगे तो ही । और ऐसा भी नहीं है कि जो बचाने में लगा है, वह अलग ढंग से खोता है; और जो समर्पण करता है, वह अलग ढंग से खोता है। सिर्फ दृष्टि बदल जाती है। खोना तो दोनों को ही पड़ता है । खोना दोनों को ही पड़ता है; दृष्टि बदल जाती है। आप मरते हैं, क्योंकि आप सोचते थे आप हैं। लाओत्से सिर्फ विसर्जित होता है विराट में। वह दृष्टि बदल जाती है। लाओत्से की मृत्यु भी एक शांत मृत्यु है । कोई पीड़ा नहीं है। क्योंकि लाओत्से और बड़ा होने जा रहा है, जैसे कारागृह से छूट रहा हो। कारागृह की दीवारें गिर जाएंगी, कारागृह के भीतर छिपा हुआ आकाश विराट आकाश में मिल जाएगा। यह तो मुक्ति का क्षण है। हमारे लिए जो मृत्यु का क्षण है, वह लाओत्से के लिए मुक्ति का क्षण है। हमारे लिए जो बड़ी उदास, दुख-भरी घटना है, वह बुद्ध और महावीर के लिए निर्वाण है-विराट के साथ एक होने जा रही है चेतना ।
मंसूर ने सूली पर लटके हुए कहा है कि तुम इतना ही मत देखना कि मुझे सूली दी जा रही है; जरा आंखें खोलो ! एक लाख लोग इकट्ठे थे, वे पत्थर मार रहे थे, गालियां दे रहे थे। उसकी हत्या के लिए आए हुए थे। मंसूर ने कहा, मैं तो मर रहा हूं; इतना ही मत देखना कि मैं मर रहा हूं; जरा आंखें खोलो, शोरगुल बंद करो। इस तरफ मैं मर रहा हूं, उस तरफ मैं परमात्मा से मिल रहा हूं; उसको भी तुम देख लेना। इधर मैं विदा हो रहा हूं, उधर मेरा स्वागत हो रहा है। इधर से मैं हट रहा हूं, उधर मेरा प्रवेश हो रहा है। तुमसे मैं दूर जा रहा हूं, और उसके मैं पास जा रहा हूं; उसको भी देख लेना ।
लेकिन जब एक आदमी मरता है, तो हमें सिर्फ उसकी विदाई दिखाई पड़ती है। वह कहीं जा रहा है, यह बिलकुल नहीं दिखाई पड़ता । हम अंधे हैं। लेकिन इस जगत में कोई चीज खोती नहीं । एक मिट्टी का कण भी नहीं खोता है। विज्ञान कहता है, डिस्ट्रक्शन इज़ इंपासिबल; असंभव है नष्ट करना किसी वस्तु को । एक रेत के कण को भी हम नष्ट नहीं कर सकते। रहेगा; किसी भी रूप में रहे, रहेगा। अस्तित्व बना ही रहेगा। अस्तित्व उतना ही रहेगा, उसकी मात्रा जरा भी कम नहीं हो सकती। तो जहां रेत का कण न मिटता हो, वहां आपको मिटने की इतनी क्या फिक्र है ? जहां कुछ भी मिटना संभव नहीं है, वहां आदमी को लगता है— मैं मर जाऊंगा, मिट जाऊंगा। यह लगना किसी भ्रांति पर खड़ा है। वह भ्रांति है अपने को अलग मान लेना। मैं अलग हूं तो घबड़ाहट शुरू हो जाती है कि मैं मिदूंगा।