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________________ ताओ उपनिषद भाग २ बुद्ध से मिलने एक सम्राट आया है। और उसने बुद्ध से कहा है कि तुम्हारे पास सब था, और तुम छोड़ कर क्यों चले आए? अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है। किसी दुख में, किसी चिंता में, कभी ऐसी भूल हो जाती है। तुम्हारे पिता मेरे मित्र हैं, मैं उन्हें समझा ले सकता हूं और तुम्हारे घर तुम्हें वापस लौटा दे सकता हूं। अगर तुम्हारा पिता से ऐसा कुछ विरोध हो गया हो कि तुम घर जाना ही न चाहो, तो मैं भी कोई पराया नहीं, तुम्हारे पिता जैसा ही हूं। तुम मेरे घर आ जाओ। फिर तुम सोचते होओ कि किसी का एहसान लेना ठीक नहीं, तो मेरी एक ही लड़की है, मेरा कोई पुत्र नहीं, मैं तुम्हारा विवाह किए देता हूं। मेरी सारी संपत्ति, सारे साम्राज्य के तुम मालिक हो जाओ। इस बीच जब वह ये सारे प्रपोजल्स, ये सारे प्रस्ताव दे रहा है, तब उसने एक बार भी बुद्ध की तरफ नहीं देखा कि वे हंस रहे हैं। जब वह अपनी पूरी बात कह चुका और उसने कहा कि क्या इरादे हैं? तो बुद्ध ने कहा, तुम मुझे सोचते हो कि मेरे पास कुछ नहीं है और मैं सोचता हूं कि तुम्हारे पास कुछ नहीं है। ऐसे तुम भी ठीक सोचते हो, मैं भी ठीक सोचता हूं; सिर्फ हमारे सोचने के क्षेत्र अलग-अलग हैं। तुम्हारे पास बाहर सब कुछ है, मेरे पास बाहर कुछ भी नहीं। इसलिए स्वभावतः तुम्हें दिखाई पड़ता है। बेचारा! गरीब! इसे किसी तरह वापस समृद्धि में लौटा दो। मैं भी देखता हूं, मेरे भीतर सब कुछ है, तुम्हारे भीतर कुछ नहीं है। मेरा मन होता है : बेचारा! गरीब! इसे भीतर किसी तरह भर दो। तो बुद्ध ने उस सम्राट से कहा कि मैं दोनों जान चुका हूं। जो तुम मुझे दे सकते हो, वह सब मेरे पास था। जो तुम मुझे आश्वासन दे सकते हो, उससे बहुत ज्यादा मेरे पास था। उसे मैं छोड़ कर आया हूं। और मैं तुमसे कहता हूं कि मेरे पास अब सब कुछ है और तब मेरे पास कुछ भी नहीं था। और तुम्हें एक ही अनुभव है, सब कुछ होने का, जिसे तुम सब कुछ समझ रहे हो। तुम मेरी मानो, और यह भिक्षा-पात्र हाथ में लो और संन्यास में दीक्षित हो जाओ। एक विपरीतता है कहीं भी। तो लाओत्से कहता है, बैलगाड़ी का चाक चलता है। चाक की तीलियां भरी हुई हैं, लेकिन चाक अपने केंद्र पर शून्य है। उसी शून्य पर चलता है। लेकिन वह शून्य हमें दिखाई नहीं पड़ता। शून्य का मतलब ही यह होता है कि जो दिखाई नहीं पड़ता। दृश्य सदा अदृश्य के ऊपर निर्भर होता है। यह पोलैरिटी सभी तरफ रहेगी। दृश्य अदृश्य पर निर्भर होगा; शब्द मौन से पैदा होता है; जीवन मृत्यु के साथ टिका हुआ है। लेकिन वह दूसरा दिखाई नहीं पड़ता। लाओत्से उसे समझाने के लिए फिर कहता है, 'मिट्टी से घड़े का निर्माण होता है, किंतु उसकी उपयोगिता उसके शून्य खालीपन में निहित है।' एक घड़ा हम बनाते हैं मिट्टी का। लेकिन अगर ठीक से पूछे, तो घड़ा कहां है? उस मिट्टी में या मिट्टी के भीतर जो खालीपन है, उसमें? जब आप बाजार से घड़ा खरीद कर लाते हैं, तो आप घड़े के लिए घड़ा खरीद कर लाते हैं कि वह जो खालीपन है भीतर, उसके लिए घड़े को खरीद कर लाते हैं? क्योंकि पानी घड़े में नहीं भरा जा सकेगा, खालीपन में भरा जा सकेगा। खाली जितना होगा घड़ा, उतना ही उपयोगी है। बाहर की मिट्टी की दीवार की उपयोगिता है, क्योंकि वह एक खालीपन को घेरती है और सीमा बना देती है, बस। लेकिन असली घड़ा तो खालीपन है। लेकिन दिखाई तो हमें पड़ता है घड़ा, खालीपन तो कोई देखता नहीं। और आप बाजार में खालीपन खरीदने नहीं जाते, घड़ा खरीदने जाते हैं। आप दाम खालीपन के नहीं चुकाते, घड़े की मिट्टी के चुकाते हैं। बड़ा घड़ा होगा तो ज्यादा दाम चुकाएंगे; छोटा घड़ा होगा तो थोड़े दाम चुकाएंगे। मिट्टी पर निर्भर करेगा कि दाम कितने हैं। मिट्टी पर निर्भर करेगा कि दाम कितने हैं, खालीपन पर निर्भर नहीं करेगा। यद्यपि घड़े की परम उपयोगिता उसके खालीपन में है। घर जाकर पता चलेगा कि मिट्टी कितनी ही प्यारी रही हो, लेकिन अगर भीतर का खालीपन नहीं है, तो घड़ा बेकार हो गया। मिट्टी कितनी ही सुंदर रही हो, लेकिन अगर भीतर घड़ा बंद है और उसमें खालीपन नहीं है, मिट्टी ही भरी है, तो घड़ा बेकार हो गया, लाना व्यर्थ हो गया। 86
SR No.002372
Book TitleTao Upnishad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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