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अबस्तित्व और खालीपन है आधार सब का
सत्य का पता न चले, तो मित्रों को पता मत चलने देना। शत्रुओं को पता न चले सत्य का, तो मित्रों को पता मत चलने देना। और यह भी लिखा है कि किसी भी शत्रु के साथ ऐसा व्यवहार मत करना कि किसी दिन वह मित्र हो जाए तो पछतावा हो, क्योंकि कोई भी शत्र किसी भी दिन मित्र हो सकता है।
और जीवन प्रतिपल बदलता रहता है। यहां कुछ भी थिर नहीं है। एक अति से दूसरी अति पर जीवन डोलता रहता है। जीवन की गहराई में विरोध संयुक्त हैं; और जीवन की सतह पर विरोध वियुक्त हैं, अलग-अलग हैं। जो सतह को देखता है, वह लाओत्से को नहीं समझ पाएगा। क्योंकि लाओत्से जो अल्टीमेट पोलैरिटी है, जो आखिरी ध्रुवीयता है जीवन की, उसकी बात कर रहा है।
___वह कहता है, 'पहिए की तीसों तीलियां उसके मध्य भाग में आकर जुड़ जाती हैं, किंतु पहिए की उपयोगिता धुरी के लिए छोड़ी गई खाली जगह पर निर्भर है।'
चाक देखें बैलगाड़ी का। आरे, तीलियां जुड़ी हैं केंद्र से। लेकिन बड़ी अदभुत बात है कि चाक चलता है, तीलियां घूमती हैं। लेकिन चाक के बीच में एक खाली जगह है, एम्पटीनेस है, उसी खाली जगह पर यह सारा चाक का घूमना है। उस खाली जगह में कील है। और एक मजे की बात है कि चाक तो चलता है और कील खड़ी रहती है। खड़ी हुई कील पर चक्के का चलना घूमता है। अगर कील भी चल जाए, तो चाक न चल पाए। चाक चल सकता है, क्योंकि कील नहीं चलती। अचल है कील। अचल कील पर चलता हुआ चाक घूमता है। और जितनी अचल हो कील, चाक उतनी ही कुशलता से घूम सकता है। यह विपरीत का नियम है। और खाली जगह है, चाक के बीच में खाली जगह है, उसी में तो कील आकर बैठेगी।
वह जो खाली जगह है चाक की, लाओत्से कहता है, शायद तुम्हें दिखाई भी न पड़े कि वही खाली जगह चाक का असली राज है। क्योंकि वही सेंटर है, वही केंद्र है। उस खाली जगह के बिना चाक नहीं हो सकता। इसका मतलब यह हुआ कि जहां-जहां भरापन दिखाई पड़ता हो, वहां गहरे में खालीपन भी मौजूद होगा। इसे हम थोड़ा समझ लें।
अगर आपको रास्ते पर चलते हुए भिक्षा-पात्र लिए हुए बुद्ध मिल जाएं, तो एकदम खाली आदमी मालूम पड़ेंगे। उनके पास कुछ भी नहीं है। एक भिक्षा-पात्र है, कुछ भी नहीं है। कोई धन नहीं, कोई पद नहीं, कोई प्रतिष्ठा नहीं, कोई महल नहीं। एक दिन था। अगर उस दिन आपको बुद्ध मिले होते, तो उनके पास सब कुछ था। धन था, महल था, राज्य था, साम्राज्य था; बड़ी शक्ति थी, बड़ी प्रतिष्ठा थी, वह सब था उनके चारों तरफ। एक दिन उनके पास सब था, लेकिन बुद्ध को लगा कि मैं भीतर खाली हूं। बाहर सब भरापन था, और बुद्ध को लगा कि भीतर मैं खाली हूं। चाक पूरा भरा था और कील बिलकुल खाली थी। और बुद्ध को लगा, बाहर यह सब भरा हुआ रहा आए, इससे क्या मिलेगा, जब तक मैं भीतर खाली हूं! तो बुद्ध ने वह सब छोड़ दिया। फिर एक दिन वे भिखारी की तरह सड़क पर जा रहे हैं। अब आप अगर उनको देखेंगे, तो बाहर सब खालीपन है; लेकिन भीतर वह आदमी बिलकुल भरा हुआ है।
त्याग की, तपश्चर्या की सारी धारणा इसलिए पैदा हुई, क्योंकि इस रहस्य को समझ लिया गयाः अगर आप बाहर भरने में लगे रहेंगे, तो भीतर खाली रह जाएंगे। क्योंकि हर भरेपन के भीतर खाली अनिवार्य है। और अगर आप भीतर भरना शुरू करते हैं, तो बाहर आपको खाली होने के लिए राजी होना पड़ेगा। क्योंकि दोनों बातें एक साथ नहीं सम्हाली जा सकतीं। आप चाहें कि बाहर भी भरा हो, भीतर भी भरा हो, यह संभव नहीं है। क्योंकि जीवन विपरीत के नियम को मान कर चलता है। तो आपको पोलैरिटी को समझना पड़ेगा। अगर आपको भीतर भरे हुए मनुष्य होना है, चाहते हैं कि भीतर परमात्मा भर जाए, तो बाहर संसार के भराव की आपको चिंता छोड़ देनी पड़ेगी। यह बाहर की पकड़ छोड़ देनी पड़ेगी, यह क्लिगिंग छोड़ देनी पड़ेगी। तो भीतर की पकड़ उपलब्ध होगी; लेकिन बाहर? बाहर खालीपन फैल जाएगा।
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