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अनस्तित्व और ग्वालीपन है आधार सब का
खालीपन की उपयोगिता है। लाओत्से कहता है, हम एक मकान बनाते हैं...।
हम यहां बैठे हुए हैं, हम कहते हैं हम मकान में बैठे हुए हैं। लेकिन अगर लाओत्से से पूछे, तो वह कहेगा, हम खालीपन में बैठे हुए हैं। मकान तो ये दीवारें हैं, जो चारों तरफ खड़ी हैं। इन दीवारों में कोई भी बैठा हुआ नहीं है। ये दीवारें केवल बाहर के खालीपन को भीतर के खालीपन से अलग करती हैं, बस। इनका उपयोग सीमांत का है। बाहर के आकाश को भीतर के आकाश से विभक्त कर देती हैं। इसकी सुविधा है, इसकी जरूरत है। बस दीवार का उपयोग इतना है। लेकिन दीवार में कोई बैठता नहीं, बैठते तो हम खाली आकाश में हैं। इस भवन के भीतर उपयोग हम वस्तुतः किसका करते हैं? खालीपन का। तो जितना खालीपन हो, उतना यह उपयोगी हो जाता है। जितना खालीपन हो, उतना उपयोगी हो जाता है।
'मकान की उपयोगिता उसके खालीपन पर है। दरवाजे व खिड़कियों को दीवारों में काट कर हम प्रकोष्ठ बनाते हैं, कमरे बनाते हैं; किंतु कमरे की उपयोगिता उसके भीतर के शून्य पर अवलंबित होती है।'
लाओत्से यह कह रहा है कि जहां उपयोगिता दिखाई पड़ती है, वहां नहीं, उससे विपरीत में निर्भर होती है। जब आप मकान बनाते हैं, तो आपने कभी सोचा कि आप एक शून्य बना रहे हैं? एक खालीपन बना रहे हैं? नहीं, आप जब मकान बनाते हैं, तो दीवार का नक्शा तैयार करते हैं, दरवाजों के नक्शे तैयार करते हैं। शून्य का तो आप कोई नक्शा तैयार नहीं करते। लेकिन ठीक देखा जाए, तो दरवाजों और दीवारों के द्वारा आप शून्य का ही नक्शा तैयार करते हैं। वह जो शून्य है, उसको आकार देते हैं। लेकिन आकार ऊपर से दिखाई पड़ता है मूल्यवान, भीतर तो मूल्यवान शून्य ही है। और इसलिए कभी यह भी हो सकता है कि एक झोपड़ा भी बड़ा हो एक महल से। इस पर निर्भर करता है : भीतर कितना शून्य है, कितनी स्पेस है।
अक्सर मैंने पाया है कि अगर एक गरीब आदमी से कहो कि एक मित्र आए हैं, उन्हें अपने घर में ठहरा लो; तो वह कहता है, ठीक है, ठहरा लेंगे। अगर मैं किसी बड़े आदमी को कहता हूं कि एक मित्र आए हैं, उन्हें ठहरा लो; वे कहते हैं कि स्थान नहीं है। उनके पास स्थान ज्यादा है। लेकिन वे कहते हैं, स्थान नहीं है। क्या, हुआ क्या है? गरीब के पास वस्तुतः नापने जाएं, तो स्थान कम है। अमीर के पास स्थान ज्यादा है। लेकिन अमीर का स्थान इतनी चीजों से भरा हुआ है-भरा ही हुआ है, स्थान नहीं के बराबर है।
मैं एक करोड़पति के घर में ठहरा हुआ था। उनकी बैठक देख कर मुझे लगा कि वह बैठक नहीं कही जा सकती, क्योंकि उसमें बैठने की जगह ही नहीं थी। वह कोई म्यूजियम मालूम होता था। उन्होंने न मालूम कितने ढंग का फर्नीचर वहां इकट्ठा कर रखा था। वह फर्नीचर ऐसा नहीं था कि बैठने के लिए हो, वह फर्नीचर ऐसा था, देखने के लिए था। सदियों पुराना! वे कहते थे कि यह तीन सौ साल पुराना फ्रेंच फर्नीचर है, यह इतने सौ साल पुराना फला फर्नीचर है। मैंने उन्हें कहा कि यह सब ठीक है, लेकिन इसमें बैठक कहां है? फर्नीचर ही था, उसमें बैठ कहीं सकते नहीं थे। जगह भी, वहां मूव करने की जगह भी नहीं थी, कि उस कमरे में से निकलना हो, तो आपको बच कर निकलना पड़े। वे उसमें भरते चले गए थे; जो भी उन्हें पसंद आता था, वे लाते चले गए थे। जब मैंने उनसे कहा कि इसमें बैठक कहां है, तो वे बहुत चौंके। उन्होंने कहा, यह तो मुझे खुद भी खयाल नहीं रहा! जब शुरू किया था, तो बैठक की तरह ही इसको शुरू किया था। फिर धीरे-धीरे सब भरता चला गया। अब तो सिर्फ कोई आता है मेहमान, तो उसे हम दिखा देते हैं लाकर। अब इसमें बैठक नहीं बची है।
ऐसा बाहर तो बहुत आसानी से घट जाता है, भीतर भी इतनी ही आसानी से घट जाता है। जब आप एक आदमी के शरीर को प्रेम करते हैं, तब आप भूल जाते हैं कि वह भीतर जो स्पेस है, जिसे हम आत्मा कहते हैं, वह
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